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प्रास्ताविक
[ भाग 1 उन विजेताओं की प्रतिबिम्ब हैं जो, ज़िम्मर के शब्दों में 'लोकाग्र में सर्वोच्च स्थान पर स्थिर हैं और क्योंकि वे रागभाव से अतीत हैं अतः संभावना नहीं कि उस सर्वोच्च और प्रकाशमय स्थान से स्खलित होकर उनका सहयोग मानवीय गतिविधियों के इस मेघाच्छन्न वातावरण में आ पड़ेगा। तीर्थ-सेतु के कर्ता विश्व की घटनाओं और जैविक समस्याओं से भी निर्लिप्त हैं, वे अतीन्द्रिय, निश्चल, सर्वज्ञ, निष्कर्म और शाश्वत शांत हैं। यह तो एक आदर्श है जिसकी उपासना की जाये, प्राप्ति की जाये; यह कोई देवता नहीं जिसे प्रसन्न किया जाये, तृप्त या संतुष्ट किया जाये । स्वभावतः इसी भावना से जैन कला और स्थापत्य की विषय-वस्तु अोतप्रोत है।
किन्तु, दूसरी ओर, इन्द्र और इंद्राणी, तीर्थंकरों के अनुचर यक्ष और यक्षी, देवी सरस्वती, नवग्रह, क्षेत्रपाल और सामान्य भक्त नर-नारी, जैन देव-निकाय के अपेक्षाकृत कम महत्त्व के देवताओं या देवतुल्य मनुष्यों के मूर्तन में, तीर्थंकरों और अतीत के अन्य सुविख्यात पुरुषों के जीवन चरित्र के दृश्यांकनों में, और विविध अलंकरण प्रतीकों के प्रयोग में कलाकार किन्हीं कठोर सिद्धांतों से बँधा न था, वरन उसे अधिकतर स्वतंत्रता थी। इसके अतिरिक्त भी कलाकार को अपनी प्रतिभा के प्रदर्शन का पर्याप्त अवसर था, प्राकृतिक दृश्यों तथा समकालीन जीवन की धर्म-निरपेक्ष गतिविधियों के शिल्पांकन या चित्रांकन द्वारा जो कभी-कभी विलक्षण बन पड़े, जिनसे विपुल ज्ञातव्य तत्त्व प्राप्त होते हैं और जिनमें कलात्मक सौंदर्य समाया हुआ है। पर, इन सबमें भी कलाकार को जैन धर्म की शुद्धाचार नीति को ध्यान में रखना था, इसीलिए उसे शृंगार, अश्लीलता और अनैतिक दृश्यों की उपेक्षा करनी पड़ी।
जहाँ तक स्थापत्य का प्रश्न है, प्रारंभ में जैन साधु क्योंकि अधिकतर वनों में रहते थे और भ्रमणशील होते थे, अतः जनपदों से दूर पर्वतों के पार्श्वभाग में या चोटियों पर स्थित प्राकृतिक गुफाएं उनके अस्थायी आश्रय तथा आवास के उपयोग में आयीं । यहाँ तक कि प्रारंभ में निर्मित गुफाएँ सादी थीं और सल्लेखना धारण करनेवालों के लिए उनमें पालिशदार प्रस्तर-शय्याएँ प्रायः बना दी जाती थीं। तीसरी | चौथी शती ईसवी से, जनपथों से हटकर बने मंदिरों या अधिष्ठानों में लगभग स्थायी रूप से रहने की प्रवृत्ति जैन साधुओं के एक बड़े समूह में चल पड़ी, इससे शैलोत्कीर्ण गुफा-मंदिरों के निर्माण को प्रोत्साहन मिला । जैसा कि स्मिथ ने लिखा है : 'इस धर्म की विविध व्यावहारिक आवश्यकताओं ने, निस्संदेह, विशेष कार्यों के लिए अपेक्षित भवनों की प्रकृति को भी प्रभावित किया । तथापि, जैन साधु अपने जीवन से संयम-धर्म को कभी अलग न कर सके । संभवतया यही कारण है कि अजंता और एलोरा के युगों में भी, थोड़ी संख्या में ही जैन गुफाओं का निर्माण हुआ, और पाँचवीं से बारहवीं शताब्दियों के मध्य ऐसे लगभग तीन दर्जन मात्र गुफा-मंदिर ही निर्मित किये गये, वे भी केवल दिगंबर आम्नाय द्वारा; श्वेताम्बर साधनों ने पहले ही जनपदों में या उनके समीप रहना प्रारंभ कर दिया था।
1 जिम्मर( हैनरिख). फिलासफ़ीज प्रॉफ इण्डिया. 1951. न्यूयार्क , पृ 181-82. 2 स्मिथ (बी ए). हिस्ट्री ऑफ फाइन आर्ट्स इन इण्डिया एण्ड सीलोन. 1930. आक्सफोर्ड. 9.
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