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अध्याय 5
जैन कला की प्राचारिक पृष्ठभूमि
जैन कला और स्थापत्य की आचारिक पृष्ठभूमि का मूल्यांकन करते समय यह जानना आवश्यक है कि जैनों ने पिछली शताब्दियों में देश भर में कला और स्थापत्य की किन विधाओं का सृजन किया है। इन क्षेत्रों में जैनों का योगदान भारतीय परंपरा का एक अभिन्न अंग ही है, तथापि जैनों के धार्मिक-आचारिक मूल्यों को ध्यान में रखते हुए, इस योगदान को भी अध्ययन का विषय बनाया जा सकता है।
लाक्षणिक कलाओं को ही लें तो, जैन भंडारों में बहुत अधिक मात्रा में संग्रहीत पाण्डुलिपियां मिलती हैं। वास्तव में, यदि उनकी लिपियों का अध्ययन किया जाये, तो भारत के विभिन्न भागों में लेखन-कला के विकास को समझने में हमें बड़ी सहायता मिलेगी। विशेषकर पश्चिम भारत में और थोड़ी-बहुत मात्रा में दक्षिण भारत में इन पाण्डुलिपियों पर सूक्ष्म चित्रकारी की गयी । दक्षिण भारत की कुछ गुफाओं में चित्र बनाये गये हैं। मेरु, नंदीश्वर द्वीप, समवसरण, मानस्तंभ, चैत्य-वृक्ष, स्तूप, आदि का चित्रण किया गया है। जैनों ने कई गुफाओं का भी निर्माण कराया है, जो किसी समय गहत्यागी मुनियों के निवास के लिए बनायी गयी थीं किन्तु इनमें से कुछ कालांतर में गुफा-मंदिरों के रूप में परिवर्तित हो गयीं जिनमें तीर्थंकरों, सिद्धों, प्राचार्यो, साधुओं तथा यक्ष-यक्षियों आदि की मूर्तियाँ हुआ करती थीं।
इस प्रसंग में यह जान लेना आवश्यक है कि कला के प्रति सामान्यतः और देवत्व, पूजन, पूज्य एवं पूजा-स्थलों के प्रति विशेषतः, जैनों की मनोवृत्ति क्या रही है । जैन धर्म इस प्रचलित धारणा में विश्वास नहीं करता कि एक सर्वोच्च शक्ति के रूप में किसी ऐसे ईश्वर का अस्तित्व है जिसमें विश्व के सृजन की शक्ति है और जो इस जगत् के सभी प्राणियों के भाग्य का निर्णय करता है। इसके विपरीत जैनों की ईश्वर सम्बन्धी मान्यता यह है कि धर्म के मार्ग का अनुसरण कर जो भी अपनी उन्नति करना चाहता है, उसके लिए ईश्वर एक सर्वोच्च आध्यात्मिक आदर्श है। हममें से प्रत्येक की आत्मा अनादि काल से कर्मों के बंधन में जकड़ी हुई है । कर्म अपनी प्रकृति, अवधि, उत्कटता और परिमाण के अनुसार अपना फल स्वतः ही देते रहते हैं । उनके अच्छे-बुरे फलों को भोगने के अतिरिक्त अन्य कोई उपाय नहीं है । ईश्वर का इसमें कोई हाथ नहीं होता। जैन धर्म में देवत्व की उपासना कोई वरदान प्राप्त करने या संकटों से छुटकारा पाने के लिए नहीं की जाती अपितु इसलिए कि उपासक
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