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अध्याय 3 ]
जैन धर्म का प्रसार
यद्यपि वह शैव मतावलंबी था तथापि उसने मंत्री विमल को आबू पर्वत पर प्रसिद्ध विमलवसही मंदिर के निर्माण कराने की अनुमति प्रदान की थी। विश्वास किया जाता है कि राजा जयसिंह की सुप्रसिद्ध जैन आचार्य हेमचन्द्र से घनिष्ठ मैत्री थी। इस काल में श्वेतांबर और दिगंबर प्राचार्यों के मध्य शास्त्रार्थ भी होते थे।
जयसिंह के उत्तराधिकारी कुमारपाल ने पालिताना, गिरनार और तारंगा में जैन मंदिरों का निर्माण कराया था तथा विशेष दिनों में पशु-बध पर भी प्रतिबंध लगाया था। यह कहना अतिशयोक्ति न होगा कि कुमारपाल के प्रयास के फलस्वरूप गुजरात के निवासी आज पर्यंत भी शाकाहारी हैं।
कुमारपाल के उपरांत जैन धर्म के प्रति तीव्र प्रतिक्रिया हुई और कहा जाता है कि उसके उत्तराधिकारी ने कुछ जैन मंदिरों को भी ध्वस्त करा दिया था। किन्तु राजकीय संरक्षण के समाप्त हो जाने पर भी प्रतीत होता है कि जैन धर्म को जैन मंत्रियों, व्यापारियों एवं जन-साधारण का बहत संपोषण और समर्थन मिलता रहा। प्राब, गिरनार और शत्रंजय पर्वतों के मंदिरों का निर्माण बघेले राजाओं के मंत्रियों द्वारा कराया गया था। इस काल के अनेक अभिलेख साक्षी हैं कि इस समय जैन धर्म को व्यापक लोकप्रिय समर्थन प्राप्त था।
मध्यकालीन राजपूताने के शासक वंशों द्वारा जैन धर्म को प्रदत्त राज्याश्रय का साक्ष्य इस काल के जैनों की दान-प्रशस्तियों से प्राप्त होता है। मध्यकाल में पश्चिम भारत में जैन धर्म को जो प्रोत्साहन प्राप्त हुआ उसने एक स्थायी प्रभाव छोड़ा जिसके परिणामस्वरूप गुजरात और राजस्थान में आज भी पर्याप्त संख्या में जैन धर्मानुयायी विद्यमान हैं।
पूर्ववर्ती शताब्दियों में दक्षिणापथ में जैन धर्म के प्रसार का जो अल्प एवं अस्पष्ट साक्ष्य प्राप्त है, उसकी अपेक्षा बादामी के चालुक्यों (सन् ५३५-७५७) के काल में जैनधर्म की स्थिति में व्यापक परिवर्तन हुआ । सातवीं शताब्दी में यहाँ जैन धर्म की समृद्ध स्थिति का परिचय अनेक शिलालेखीय साक्ष्यों से प्राप्त होता है । कोल्हापुर से प्राप्त ताम्र-पत्रों और बीजापुर जिलांतर्गत ऐहोले, धारवाड़ जिलांतर्गत लक्ष्मेश्वर और अदूर से प्राप्त शिलालेखों में जैन मंदिरों के निर्माण तथा उनकी व्यवस्था के लिए भूमि के अनुदान दिये जाने के उल्लेख मिलते हैं। इसके अतिरिक्त इस अवधि में बादामी, ऐहोले एवं धाराशिव की गुफाओं में पायी गयी जैन प्रतिमाएँ और प्रतीक दक्षिणापथ में जैन धर्म की उपस्थिति की सूचक हैं।
मान्यखेट के राष्ट्रकूटों (सन् ७३३-६७५) के शासनकाल में जैन धर्म को राज्याश्रय भी प्राप्त रहा प्रतीत होता है । इस वंश के कई राजाओं का जैन धर्म के प्रति अत्यंत झुकाव रहा। यह
1 देव, पूर्वोक्त, पृ 116-17. 2 अल्तेकर (अनन्त सदाशिव). राष्ट्रकूट्स एण्ड देयर टाइम्स. 1934. पूना . पृ 272-74
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