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प्रास्ताविक
[ भाग 1
सर्वोत्कृष्ट एवं अद्भुत अलंकरण - बाहुल्य के कारण अन्य मंदिरों से आगे निकल जाने पर भी तत्कालीन भारतीय आदर्श की सीमारेखा में ही रहे ।
अगर अगले पृष्ठों से यह स्पष्ट हो सके कि जैनधर्म की भारतीय संस्कृति को कितनी प्रचुर मूर्त देन है ( श्राध्यात्मिक देन को छोड़कर जो प्रायः विदित है ) तो प्रस्तुत ग्रंथ का उद्देश्य बहुत कुछ पूरा हो सकेगा ।
भारत के बाहर जैन पुरावशेषों के प्रमाण नहीं मिलते । श्रीलंका के बौद्ध ऐतिहासिक ग्रंथ महावंश में उल्लेख मिलता है कि राजा पाण्डुकाभय ने अपनी राजधानी में एक निग्रंथ विहार का निर्माण कराया था । 1 चौथी शती ई० पू० में श्रीलंका में जैनों की विद्यमानता आश्चर्यजनक नहीं है, क्योंकि उस समय तक जैनधर्मं उड़ीसा, और संभवतः दक्षिण भारत में पहले से ही फैल चुका था । किन्तु उसके विहार के कोई अवशेष अभी तक पहचाने नहीं जा सके । न ही दक्षिण-पूर्व एशिया में जैनधर्म के प्रसार का कोई विश्वसनीय प्रमाण है, यद्यपि इसमें संदेह नहीं कि पश्चिमी भारत के वणिकों (उनमें से कुछ जैन भी होने चाहिए) ने इन प्रदेशों का भ्रमण किया था, किन्तु बौद्ध और ब्राह्मण धर्मों के विपरीत यह मत वहाँ दृढ़ता से स्थापित न हो सका ; 2 यही बात गंधार प्रदेश और उसके समीपवर्ती उत्तर-पश्चिम क्षेत्र पर लागू होती है । 3
अब हम प्रस्तुत ग्रंथ पर विचार करें। श्री कलम्बूर शिवराममूर्ति, निदेशक, राष्ट्रीय संग्रहालय, श्री मधुसूदन नरहर देशपाण्डे, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के महानिदेशक और सर्वेक्षण के कुछ अन्य अधिकारियों तथा विशेष रूप से मंत्री, भारतीय ज्ञानपीठ, के साथ हुए मेरे विचार-विमर्श
1
महावंसो. संपा : एन के भगत. देवनागरी पालि टेक्स्ट सीरीज 12. द्वितीय संस्करण 1959 बम्बई. पू 74. / जैन (हीरालाल ). भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान. 1962. भोपाल. पू 35.
2 कुछ विद्वान् इण्डोनेशिया में प्रम्बानन के शिव मंदिर में जैन प्रभाव देखते हैं । तुलनीय जैन, पूर्वोक्त, पू 141. फर्गुसन के आधार पर यह किसी पुष्ट प्रमाण पर श्राधारित नहीं है, मुख्य मंदिर में प्रधान प्रतिमा शिव की है (जिसे बौद्ध विद्वान् किसी मृत शासक का शव बताते हैं) और मंदिर में तीन तरफ गौण देवता हैं, पार्श्ववर्ती देवताओं की संकल्पना ।
3
गन्धार प्रदेश में जैन अवश्य विद्यमान रहे होंगे (ह्व ेनसांग ने उन्हें वहाँ सातवीं शती में देखा था), फिर भी मार्शल की इस संदेहास्पद मान्यता का कोई औचित्य नहीं है कि तक्षशिला के दूसरे नगर सिरकप के कुछ स्तूप जैनों से संबंधित हैं । मार्शल (जॉन ). गाइड टू तक्षशिला. कैम्ब्रिज 1960 72-74, पृ 69; आगे देखिए अध्याय 8. यह परंपरा कि तीर्थकरों ने उत्तर पश्चिम का भ्रमण किया था संदिग्ध है ठीक उसी प्रकार जैसे यह धारणा कि बुद्ध भी वहाँ पहुंचे थे. बील, पूर्वोक्त, 1, 1884, पृष्ठ 30 ( फ़ाहियान ) और 67 आदि (ह्व ेनसांग ) .
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