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[ भाग 1
इस ग्रंथ की योजना के बारे में भी मुझे कुछ कहना है । कुछ परिचयात्मक अध्यायों के पश्चात् ग्रंथ का मूलभाग अर्थात् स्मारक और मूर्तिकला का विवेचन प्रारम्भ होता है, जिसका विभाजन निम्नलिखित कालों में किया गया हैं : (१) ई० पू० ३०० से ३०० ई०, (२) ३०० ई० से ६०० ई०, (३) ६०० ई० से १००० ई०, (४) १००० से १३०० ई०, और (५) १३०० ई० से १८०० ई० तक । यह काल विभाजन बहुत कुछ परंपरागत है जो कि क्रमशः ग्राद्य ऐतिहासिक युग, आर्ष युग ( क्लासिकल - - कम से कम जहाँ तक उत्तर भारत का संबंध है), पूर्व मध्य युग और उत्तर-मध्य युग, कहे जानेवाले युगों से मिलता-जुलता है । इस विभाजन को बनाये रखना सदैव ही सरल नहीं रहा । उदाहरणार्थ, जब किसी मूर्ति की तिथि उसकी शैली के आधार पर निश्चित की जानी हो, तब एकाधिक विद्वान् उसे अपने अध्याय में सम्मिलित करना चाहेंगे क्योंकि ऐसे मामलों में कुछ मत - विभिन्नता अनिवार्य है । इस प्रकार की सामग्री को एक अध्याय में रखने और दूसरे से उसे निकालने में संपादक ने स्वयं निर्णय लिया है। इसी प्रकार की कठिनाई का अनुभव स्मारकों के संबंध में भी हुआ है, बल्कि यहाँ यह कठिनाई इस कारण और बढ़ गयी है कि मंदिरों में परिवर्द्धनों और परिवर्तनों के कारण संश्लिष्ट समूह ( कॉम्प्लेक्स) का विभाजन एक से अधिक युग में कर सकना कठिन प्रतीत हुआ है क्योंकि संश्लिष्ट के विभाजन के बिना यह कार्य संभव नहीं । यहाँ भी मुझे अपना ही निर्णय लेना पड़ा; कुछ मामलों में एक संश्लिष्ट को किसी विशेष युग के अंतर्गत रखा गया है जबकि उसके कुछ भाग दूसरे युग से संबंधित हैं ।
प्रास्ताविक
ऊपर दिये गये अधिकांश युगों को निम्न प्रकार प्रदेशों में विभक्त किया गया है : (१) उत्तर भारत, (२) पूर्व भारत, (३) मध्य भारत, (४) पश्चिम भारत, (५) दक्षिणापथ, और (६) दक्षिण भारत । यहाँ भी यह विभाजन पूर्णतः संतोषजनक सिद्ध नहीं हुआ। तो भी काम चलाने के लिए उत्तर की परिभाषा यह की गयी है कि उसमें दक्षिण-पूर्व राजस्थान ( जो पश्चिमी भारत के अंतर्गत रखा गया है) और उत्तर प्रदेश के एक भाग, बुंदेलखण्ड ( जो मध्य भारत के अंतर्गत आया है) को छोड़कर शेष उत्तर भारत में सम्मिलित हैं । ऐसा करते समय सामान्यतः प्राचीन सांस्कृतिक और राजनैतिक संदर्भों को ध्यान में रखा गया है । पूर्वी भारत में बिहार, पश्चिम बंगाल, असम और उड़ीसा सम्मिलित माने गये हैं (एक या दो अध्यायों में बाँग्लादेश को भी सम्मिलित किया गया है । मैं स्वीकार करता हूँ कि यह व्यवस्थित नहीं है और आशा करता हूँ कि इसे राजनीतिक उद्देश्य से प्रेरित नहीं माना जायेगा, क्योंकि वहाँ प्राप्त बहुत थोड़े जैन पुरावशेषों के लिए अलग से प्रदेश बनाना उचित प्रतीत नहीं हुआ ) । मध्य भारत से तात्पर्य मध्य प्रदेश और बुंदेलखण्ड से है । पश्चिम भारत में, जैसा कि पहले कहा जा चुका है, गुजरात और दक्षिण-पूर्व राजस्थान सम्मिलित हैं । दक्षिणापथ स्वतः स्पष्ट है । दक्षिण भारत में कर्नाटक के दक्षिणी जिले और निःसंदेह, तमिलनाडु, आन्ध्र प्रदेश और केरल सम्मिलित हैं । इन सीमाओं का कभी - कभी अतिक्रमण हुआ है किन्तु वह क्षम्य है ।
यहाँ इस बात पर भी ध्यान देना उचित होगा कि ३०० ई० पू० से ३०० ई० और ३०० ई० से ६०० ई० की अवधियों के अन्तर्गत 'उत्तर भारत' का स्थान मथुरा ने ले लिया है। यह उचित ही
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