________________
अध्याय 1]
संपादक का अभिमत परिस्थितियाँ भी आयीं)। मुझे इस बात की और भी प्रसन्नता है कि उन्होंने सदा ही सौजन्यपूर्ण व्यवहार किया और मेरी कठिनाइयों को समझा। उनके साथ काम करना मेरे लिए सदा ही आनन्द का विषय रहा; जिसके लिए मैं उन्हें हार्दिक धन्यवाद देता हूँ।
ज्ञानपीठ के शोध-विभाग के श्री गोपीलाल अमर और श्री वीरेन्द्रकुमार जैन ने पत्र-व्यवहार में हाथ बँटाने, आवश्यक चित्रों को तुरंत छाँटने और आवश्यकता होने पर विभिन्न स्थानों पर तत्परतापूर्वक आ-जाकर मुझे अत्यधिक सहयोग दिया है। संस्कृत, प्राकृत और जैन विद्या के विद्वान् होने के कारण श्री अमर ने मुझे कुछ तकनीकी सहायता भी दी है। मैं इन दोनों को तथा ज्ञानपीठ के सहायकों एवं टाइपकारों को धन्यवाद देता हूँ क्योंकि इन्होंने सदैव ही मेरी सहायता की है।
यह उल्लेख करने की आवश्यकता नहीं है कि उन लेखकों के सहयोग के बिना, जिन्होंने हमारे अनुरोध पर अपने लेख भेजे, इस ग्रंथ का प्रकाशन ही संभव नहीं था। उनके सहयोग के लिए मैं उनका आभारी हूँ।
मेरे इण्डोनेशिया चले जाने पर कुछ अध्याय जैन इतिहास के विद्वान् डॉ० ज्योतिप्रसाद जैन को समालोचना के लिए भेजे गये थे। उन्होंने जो समालोचनाएँ कृपापूर्वक की थीं उनमें से अनेक का उपयोग आभार-प्रदर्शन के साथ किया गया है। उनकी महत्त्वपूर्ण राय के लिए मैं उनका कृतज्ञ हूँ।
श्री कलम्बूर शिवराममूर्ति, निदेशक, राष्ट्रीय संग्रहालय, और भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के अधिकारियों से मेरे पुराने संबंध इस कार्य को गति देने में सहायक हुए हैं। श्री शिवराममूर्ति और सर्वेक्षण के महानिदेशक श्री मधुसूदन नरहर देशपाण्डे ने प्रारंभ से ही प्रस्तुत ग्रंथ में गहरी रुचि प्रदर्शित की है। सर्वेक्षण के दो नवयुवक अधिकारियों, श्री मुनीशचन्द्र जोशी, अधीक्षक, पुरातत्व, और श्री ब्रजमोहन पाण्डे, उपअधीक्षक, पुरातत्व, ने सदैव सहयोग दिया है। श्री जोशी ने मुझे अनेक तकनीकी समस्याओं में सहायता दी और श्री पाण्डे ने संदर्भो का परीक्षण किया और यथासंभव एकरूपता लाने के अतिरिक्त अपूर्ण विवरण पूर्ण किये हैं। सभी संदर्भो का परीक्षण करना उनके लिए संभव नहीं हो सका क्योंकि केन्द्रीय पुरातत्व पुस्तकालय में संबंधित शोध पत्रिकाएँ और पुस्तकें, विशेषतः जैन ग्रंथ, उपलब्ध नहीं थे। श्री पाण्डे की सहायता यहीं तक सीमित नहीं रही । मेरे द्वारा थोड़ा-सा संकेत करने पर उन्होंने तत्परता से प्रूफ-संशोधन-कार्य का दायित्व ले लिया और इस प्रकार के ग्रंथ के श्रमसाध्य प्रूफ-संशोधन-कार्य को भी सफलतापूर्वक कर दिया। सर्वेक्षण के फोटोग्राफर और मानचित्रकारों ने सदैव मेरी सहर्ष सहायता की और उनसे जो अपेक्षा की गयी वह उन्होंने पूरी की। वे सभी मेरे धन्यवाद के पात्र हैं।
मैं विशेष रूप से डॉ० आर० चम्पकलक्ष्मी, असोशियेट-प्रोफेसर, सेण्टर ऑफ़ हिस्टोरिकल स्टडीज़, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, का उल्लेख करना चाहता हूँ जो इस ग्रंथ से बाद में संबद्ध
13
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org