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प्रास्ताविक
[ भाग 1 से जा पहुंचा है। इसलिए यह संभावना बन पड़ती है कि ये स्थान पार्श्वनाथ के क्रियाकलापों से संबद्ध रहे हैं । तथापि, जब हम पार्श्वनाथ से पहले के समय की बात करते हैं तब एक-एक तीर्थंकर के समयांतराल और उनके चरित्र-वर्णन के संबंध में आख्यानों के एक साम्राज्य में ही पहुंच जाते हैं।
परिपुष्ट परंपरा के अनुसार, बाइसवें तीर्थंकर अरिष्टनेमि या नेमिनाथ का जन्म अन्धकवृष्णि के ज्येष्ठ पुत्र समुद्रविजय के शौरियपुर (आगरा जिले में बटेश्वर के निकट, सौरीपुर के स्थानीय नाम से प्रसिद्ध) के यादव परिवार में हुआ था। उनका उल्लेख महाभारत के नायक कृष्ण के चचेरे भाई के रूप में हुआ है । इन तीर्थंकर राजकुमार का विवाह गिरिनगर (आधुनिक जूनागढ़) के शासक उग्रसेन की पुत्री राजकुमारी राजलमती के साथ होनेवाला था। किन्तु राजकूमार नेमि ने विवाह की वर-यात्रा के समय, विवाह-भोज हेतु काटे जाने के लिए लाये गये पशुओं को देखा। इस घटना ने उनके हृदय को संताप से भर दिया और उन्होंने सांसारिक जीवन का परित्याग कर दिया। माना जाता है कि उन्होंने गिरनार पर्वत पर तपश्चरण किया, केवल-ज्ञान प्राप्त किया और कई वर्ष पश्चात् निर्वाण प्राप्त किया। प्रतीत होता है कि इन्होंने जैन धर्म के प्रथम मौलिक सिद्धांत अहिंसा पर विशेष रूप से बल दिया । यद्यपि अनुश्रुति यही है कि इनका संबंध महाभारत आख्यान के कृष्ण के चचेरे भाई के रूप में था, तथापि इस आख्यानात्मक संदर्भ को एक निश्चित भाषा में कह पाना और इसकी ऐतिहासिकता सिद्ध कर पाना कठिन है। इतना कहना पर्याप्त होगा कि यदि इस परंपरा का कोई भी आधार है तो नेमिनाथ का समय पार्श्वनाथ के समय से पहले था।
इससे पूर्व-स्थिति का विचार करने पर हमें ज्ञात होता है कि इक्कीसवें तीर्थंकर नमिनाथ थे। वे मिथिला के राजा थे और उपनिषत्कालीन दार्शनिक राजा जनक के परिवार के थे। डॉ० हीरालाल जैन ने यह सुझाव दिया है कि इस आख्यानात्मक संबंध का कुछ अस्पष्ट ऐतिहासिक आधार रहा होना चाहिए । इनका तर्क अग्रलिखित तथ्य पर आधारित है : उत्तराध्ययन सूत्र के नौवें अध्याय में नमिनाथ के वैराग्य का कथानक आता है। उसी में एक ऐसी महत्त्वपूर्ण गाथा (६) है जिससे मिलतेजुलते पद्य बौद्ध महाजनक जातक में और महाभारत के शान्तिपर्व में भी है :
(१) सुहं वसामो जीवामो जेसि मे णत्थि किंचन ।
मिहिलाए दज्झमाणाए न मे दज्झहि किंचन ॥ (उत्तराध्ययन) (२) सुसूखंवत जीवामो वेसं नो नत्थि किंचन ।
मिहिलाए दहमानाए न मे किंचि अदह्यते ॥ (जातक) (३) मिथिलायां प्रदीप्तायां न मे किंचन दह्यते । (महाभारत)
तथापि, विचार और अभिव्यक्ति की समानता का क्षेत्र बहुत विस्तृत नहीं हो सकता और जो तर्कसंगत निर्णय निकल सकता है वह यह है कि ये तीनों उद्धरण एक सामान्य स्रोत पर आधारित
1 तथापि, यह उल्लेख किया जा सकता है कि कृष्ण की गणना वेसठ शलाका पुरुषों में से नौ वासुदेवों में की गयी है. 2 जैन (हीरालाल). भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान. 1962. भोपाल. पृ 19.
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