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प्रास्ताविक
[ भाग 1
उत्पन्न भीषण दावानल की लपटों में जा फंसे थे और तब किस प्रकार उन्होंने अपने शरीर का अंतिम समर्पण अग्निदेव को कर दिया था। यह विवरण वस्तुत: जैन परंपरा के अनुरूप है जिसमें उनके प्रारंभिक जीवन के अन्य विवरण भी विद्यमान हैं। कहा गया है कि उनकी दो पत्नियाँ थींसुमंगला और सुनंदा; पहली ने भरत और ब्राह्मी को जन्म दिया और दूसरी ने बाहुबली और सुन्दरी को । सुनंदा ने और भी अट्ठानवें पुत्रों को जन्म दिया। इस परंपरा से हमें यह भी ज्ञात होता है कि ऋषभदेव बचपन में जब एक बार पिता की गोद में बैठे थे तभी हाथ में इक्षु (गन्ना) लिये वहाँ इन्द्र
आया। गन्ने को देखते ही ऋषभदेव ने उसे लेने के लिए अपना मांगलिक लक्षणों से युक्त हाथ फैला दिया। बालक की इक्षु के प्रति अभिरुचि देखकर इन्द्र ने उस परिवार का नाम इक्ष्वाकु रख दिया।
इस परंपरा से यह भी ज्ञात होता है कि विवाह-संस्था का प्रारंभ सर्वप्रथम ऋषभदेव ने किया था। कहा गया है कि असि और मसी का प्रचलन भी उन्होंने किया। कृषि के प्रथम जनक भी वही बताये गये हैं। ब्राह्मी लिपि और स्याही (मसी) द्वारा लेखन की कला भी उन्हीं के द्वारा प्रचलित की गयी। यह संभव नहीं कि जैन सिद्धांतों के इस पारंपरिक निर्माता के व्यक्तित्व को आख्यानों का कुहासा दूर करके प्रकाश में लाया जाये। एक बात पूर्णतया निश्चित है कि भारत में साधवत्ति अत्यंत पुरातन काल से चली आ रही है और जैन मुनिचर्या के जो आदर्श ऋषभदेव ने प्रस्तुत किये वे ब्राह्मण परंपरा से अत्यधिक भिन्न हैं। यह भिन्नता उपनिषद्काल में और भी मुखर हो उठती है, यद्यपि साधुवृत्ति की विभिन्न शाखाओं के विकास का तर्कसंगत प्रस्तुतीकरण सरल बात नहीं है।
रानाडे का कथन है कि इस मान्यता के प्रमाण हैं कि उपनिषद्कालीन दार्शनिक विचारधारा पर इस विलक्षण और रहस्यवादी प्राचार का पालन करनेवाले भ्रमणशील साधनों और उपदेशकों का व्यापक प्रभाव था. . . .जैसा कि कहा जा चुका है, उपनिषदों की मूल भावना की संतोषजनक व्याख्या केवल तभी संभव है जब इस प्रकार सांसारिक बंधनों के परित्याग और गृहविरत भ्रमणशील जीवन को अपनाने वाली मुनिचर्या के अतिरिक्त प्रभाव को स्वीकार कर लिया जाये। रिस डेविड्स का अनुमान है कि जिन वैदिक अध्येताओं या ब्रह्मचारियों ने भ्रमणशील साधु का जीवन बिताने के लिए गृहस्थ जीवन का परित्याग किया उनके द्वारा साधुचर्या उतने उदार मानदण्डों पर गठित नहीं की जा सकी होगी जो मानदंड जैन मुनिचर्या के थे। ड्यूसन के मतानुसार परंपरा का विकास इससे भी कम स्तर पर इस प्रकार के प्रयत्न द्वारा हुआ होगा जिसमें कि व्यावहारिक परिधान को आत्मज्ञान जैसे आध्यात्मिक सिद्धांत से जोड़ा गया हो और जिसका उद्देश्य था-(१) सभी वासनाओं और उनके फलस्वरूप सब प्रकार के नीतिविरुद्ध प्राचार का संभावित निराकरण जिसके लिए संन्यास या परित्याग ही सर्वाधिक उपयोगी साधन था, और (२) प्राणायाम और ध्यान-योग के यथाविधि परिपालन से उत्पन्न निरोध शक्ति के द्वारा द्वत की भावना का निराकरण । नियमित पाश्रम या जीवन के सर्वमान्य व्यवहार के रूप में जो
1 रानाडे (पार डी) तथा बेलवलकर (एस के). हिस्ट्री ऑफ इण्डियन फिलॉसफी : द क्रिएटिव पीरियड.
पूना. पृ400.
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