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प्रास्ताविक
[ भाग 1 भूति नामक साधु ने क्रोध के आवेश में नग्नत्व स्वीकार किया था। अतएव इन सांप्रदायिक कथनों को स्वीकार करने की अपेक्षा यह कहना अधिक निरापद होगा कि उस काल में ऐसे दो वर्गों का अस्तित्व था, जिनमें से एक स्थितिपालक या शुद्धाचारी था जो नग्नता पर बल देता था और दूसरा शारीरिक रूप से वृद्ध तथा अक्षम जैन साधुओं का वर्ग था जो पहले वर्ग के दिगंबरत्व का समर्थक नहीं था। कालांतर में यही शुद्धाचारी (जिनकल्पी) और शिथिलाचारी (स्थविरकल्पी) साधु क्रमशः दिगंबर
और श्वेतांबर संप्रदायों के रूप में प्रतिफलित हो गये होंगे। जो भी हो, यह बात युक्तियुक्त प्रतीत होती है कि इन दोनों संप्रदायों के मध्य मतभेद धीरे-धीरे बढ़ते गये, जो ईसा की दूसरी शताब्दी के लगभग अंत तक रूढ़ हो गये।
उज्जैन से आगे के भारत के पश्चिमी भाग ईसा-पूर्व दूसरी शताब्दी में ही जैन धर्म के प्रभाव में आ गये प्रतीत होते हैं। साहित्यिक अनुश्रुतियों के अनुसार सम्प्रति मौर्य के भाई सालिशुक ने सौराष्ट्र में जैन धर्म के प्रसार में योग दिया। गुजरात-काठियावाड़ के साथ जैन धर्म का परंपरागत संबंध बाईसवें तीर्थंकर नेमिनाथ के समय तक पहुँचता है जिन्होंने काठियावाड़ में मुनिदीक्षा ली थी। इस प्रकार प्रायः ईसा-पूर्व दूसरी शताब्दी तक कलिंग, अवन्ति और सौराष्ट्र जैन धर्म के प्रभाव में आ गये प्रतीत होते हैं।
उत्तरकालीन जैन साहित्य में प्रतिष्ठान - उत्तरी दक्षिणापथ में स्थित वर्तमान पैठन - में शासन करनेवाले सातवाहनवंशी नरेश सालाहण या शालिवाहन से संबंधित कथानक प्रचुर मात्रा में प्राप्त होते हैं । कालकाचार्य ने, जिनका पौराणिक संबंध पश्चिमी भारत के शक शासक के साथ रहा था, शालिवाहन से भी संपर्क किया बताया जाता है। हाल ही में प्रो० सांकलिया ईसा-पूर्व दूसरी शताब्दी के लगभग के एक शिलालेख को प्रकाश में लाये हैं, जिसका प्रारंभ, उनके अनुसार, एक जैन मंत्र के साथ होता है । तथापि, सातवाहनों के साथ जैनों के व्यापक संबंधों के प्रमाण अत्यल्प ही हैं।
सूदुर दक्षिण में सिंहनन्दिन् द्वारा ईसा की दूसरी शताब्दी के लगभग गंग राज्य की स्थापना के साथ-साथ जैन धर्म ने वस्तुतः राष्ट्र-धर्म का रूप प्राप्त कर लिया था । कोंगुणिवर्मन, अविनीत तथा शिवमार जैसे राजा तथा उनके उत्तराधिकारी भी जैन धर्म के परम उपासक थे, जिन्होंने जैन मंदिरों, मठों तथा अन्य प्रतिष्ठानों के लिए अनुदान दिये थे।
। जर्नल प्रॉफ द बिहार ऐण्ड उड़ीसा रिसर्च सोसाइटी, 16; 1930; 29-31. 2 इण्डियम हिस्टॉरिकल क्वाटर्ली. 16; 1940; 314. 3 स्वाध्याय (गुजराती जर्नल), बड़ौदा.7,4; 419 तथा परवर्ती 4 अयंगर (के) तथा राव (एस) स्टडीज इन साउथ इण्डियन जैनिज्म. 1922. मद्रास. पृ 110-11./ विस्तृत
विवरण के लिए द्रष्टव्य: कृष्णराव (एम वी). गंगाज अॉफ तलकाड, 1936. मद्रास. पू 204-05.
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