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प्रास्ताविक
[भाग 1
यह पूरा ग्रंथ कई भागों में विभक्त है। उनमें से कुछ इतने विस्तृत नहीं हैं कि वे भाग कहे
किन्तु अध्यायों का वर्गीकरण इस विधि से सुविधाजनक हो गया है। यह ग्रंथ तीन खण्डों में प्रकाशित होगा। पहले खण्ड में परिचयात्मक अध्याय (भाग १), और ईसा-पूर्व ३०० से ३०० ई० के स्मारक और मूर्तिकला संबंधी सामग्री (भाग २); ३०० ई० से ६०० ई० (भाग ३); ६०० ई० से १००० ई० (भाग ४)1 सम्मिलित किये गये हैं। इसके बाद के दो खण्डों में निम्नलिखित सामग्री होगी ; स्मारकों और मूर्तिकला संबंधी शेष दो अध्याय, क्रमशः १००० ई० से १३०० ई० (भाग ५); और १३००-१८०० ई० (भाग ६); चित्रकला : भित्तिचित्र और लघचित्र ; विविध अध्याय ; देश-विदेश के संग्रहालयों में जैन पुरावशेषों संबंधी अध्याय ; तकनीकी शब्दों की सूची (यदि आवश्यक समझी गयी) और सभी खण्डों की संपूर्ण अनुक्रमणिका ।
यहाँ मुझे अपने संपादकीय उत्तरदायित्व का भी उल्लेख कर देना चाहिए। लेखों में कहीं-कहीं मैंने शाब्दिक परिवर्तन किये हैं और यहाँ तक कि तुलना करने और मत-विभिन्नता की ओर ध्यान आकर्षित करने के लिए प्रति-संदर्भ जोड़कर सामग्री को फिर से व्यवस्थित किया है। किसी विशेष प्रश्न पर मत-वैभिन्य की स्थिति में मैंने अपनी राय व्यक्त की है, किन्तु ऐसी स्थिति बहुत कम आयी है।
__ कहीं-कहीं मैंने स्वयं ही किसी अध्याय के कुछ भाग निकाल दिये हैं क्योंकि मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि वह सामग्री अन्य अध्यायों के उपयुक्त है। कुछ अन्य विषयों में मैंने उन्हें वहीं रहने दिया है, यद्यपि वे अन्य किसी अध्याय के योग्य थे। कहीं-कहीं मैंने लेखकों द्वारा प्रेषित चित्रों को नहीं रखा है और उनके स्थान पर ऐसे चित्रों का प्रयोग किया है जो उनकी इच्छा के अनुरूप नहीं हैं2 किन्तु ऐसा बहुत कम हा है। स्वविवेक से लिये गये इन सभी निर्णयों के तथा (अंग्रेजी संस्करण में) छपाई की जो भी गलतियाँ रह गयी हों उनका मैं उत्तरदायित्व लेता हूँ। किन्तु यहाँ मैं यह स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि मैं उन सभी विचारों से सहमत होने का या उनके सही होने का उत्तरदायित्व नहीं लेता जो विभिन्न लेखकों द्वारा व्यक्त किये गये हैं। लेखक ही अपने विवरण और विचारों के लिए उत्तरदायी हैं। न ही मेरा इस ग्रंथ के हिन्दी अनुवाद से सम्बन्ध है जिसे भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित कर रहा है।
प्रस्तुत ग्रंथ के संपादन और छपाई में मुझे अनेक व्यक्तियों से मित्रवत् सहायता मिली है। इस सूची में सबसे पहला नाम श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन, मंत्री, भारतीय ज्ञानपीठ, का है जिन्होंने यह कार्य मुझे सौंपा (यद्यपि इसमें विशेष रूप से समापन के समय अनेक समस्याएँ आयीं और अनेक चिंतापूर्ण
1 छपाई की आवश्यकताओं को देखते हुए इस पुस्तक के छपते-छपते यह निश्चय किया गया कि 600 ई० से 1000
ई० की अवधि में दक्षिण भारत संबंधी अध्याय पहले खण्ड से निकालकर दूसरे खण्ड में छापा जाये । 2 पहले तो अध्यायों की टाइप की हुई प्रति संबंधित लेखक को अनुमोदन के लिए भेजी जाती रही किन्तु बाद में
समय की कमी के कारण ऐसा करते रहना संभव नहीं हो सका।
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