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प्रास्ताविक
[ भाग 1 धार्मिक भवनों के वास्तुशिल्पीय अलंकरण में किसी प्रकार का धर्मगत अंतर नहीं है। सभी धर्मों की मूर्तियों में जीवनानंद की एक ही प्रवृत्ति स्पष्ट दिखाई देती है, केवल उनको छोड़कर जिनकी प्रकृति नितान्त धार्मिक है। उनमें यक्षी, सेविका, नायिका, अप्सरा, सुर-सुन्दरी या अलस-कन्याएँ, जो भी उन्हें कहें, वे अकेली या मिथुनों के रूप में सर्वत्र दृष्टिगोचर होती हैं और किसी भी धर्म के संयमप्रेरक उपदेश तथा प्राचार-नियम देवालयों में उनकी विद्यमानता को रोक नहीं सके । अत्यन्त प्राचीनकाल से ही वे सर्वत्र विद्यमान हैं, जैसा कि सांची के बौद्ध स्तूपों या मथुरा के अवशेषों और जैन स्तूपों की लघु अनुकृतियों से सिद्ध है। मथुरा में एक मूर्तियुक्त स्तूप पर नग्न यक्षियाँ विद्यमान हैं और उन्हें वेदिका-स्तम्भों पर कामोद्दीपक भङ्गिमाओं में देखा जा सकता है । वैसे यह सत्य है कि जैन प्रतिमा-विज्ञान किन्हीं तांत्रिक, ब्राह्मण और बौद्ध देवी-देवताओं के संदर्भ में चित्रित ब्रह्माण्डव्यापी कामशक्ति को अंकित करने की अनुमति नहीं देता, फिर भी खजुराहो तथा अन्य स्थानों के मध्ययुगीन जैन मंदिरों में कामुक-युग्म छद्मरूप से दृष्टिगोचर होते हैं । छत्तीसगढ़ में पारंग नामक स्थान में मंदिर के शिखर पर तो वे अत्यन्त मुक्त रूप में दृष्टिगोचर होते हैं । इनसे सिद्ध होता है कि ऐसे चित्रणों पर तांत्रिकवाद या कौल पाशुपतवाद आदि का प्रभाव ढूंढ़ने का प्रयास निरर्थक परिश्रम ही है। कलाकार ने अपने आपको उस धर्म के कठोर नियमों से निरपेक्ष होकर, जिसकी सेवा में वह कार्यरत था, अपने युग के उस शिल्प-विधान को अपनाया, जिसे न केवल उसका युग पूरी मान्यता प्रदान करता था, अपितु जिसमें वह स्वयं भी आनन्द लेता था। उसी प्रकार एक ओर जहाँ धर्म-ग्रंथ जैन भिक्षों को चित्रित आवासों में रहने का निषेध करते थे, वहीं दूसरी ओर साध लोग अपने गफा-मंदिरों में आनन्दप्रद चित्रकारी भी सह लेते थे। इस प्रकार की थी कलात्मक अलंकरण की प्रेरणा !
बहधा अलंकृत और अपने शिखर में चारों ओर एक ही तीर्थकर की प्रतिमाओं से युक्त मानस्तम्भ जैन मंदिरों के सम्मुख, प्रायः पाये जाते हैं। विशेष रूप से दक्षिण भारत में, इनमें ब्राह्मण्य मंदिरों के सामने स्थित और गर्भगह में प्रतिष्ठित देवता के प्रतीक से युक्त ध्वज-स्तम्भों का प्रतिरूप दिखाई पड़ता है । इस प्रकार का एक प्राचीन उदाहरण ई० पू० दूसरी शती का बेसनगर (विदिशा) का प्रसिद्ध गरुड़ स्तंभ है । वस्तुतः, यह अनुमान किया जाता है कि सम्राट अशोक द्वारा निर्मित धार्मिक भवनों के सामने अशोक-स्तंभ आवश्यक रूप से बनाये गये थे।
1 जन्नास तथा प्रोबोये, पूर्वोक्त, पू 151./ भारती, रिसर्च बुलेटिन ऑफ द कॉलेज पॉफ इण्डॉलॉजी, बनारस हिन्दू
विश्वविद्यालय. 33; 1959-60; पृ 48 में एल. के. त्रिपाठी. / कान्तिसागर, पूर्वोक्त, पृ 125. 2 कान्तिसागर, पूर्वोक्त, पृ 24-25. 3 हाल के उत्खनन से एक ही पंक्ति में अन्य स्तंभों की नींव और उनके पास ही में एक मंदिर के पुरावशेष मिले हैं. ___ इण्डियन प्राक्यिालॉजी-ए रिव्यू, 1964-65. 1965. नई दिल्ली. पृ 19./ वही, 1965-66. 1966. पृ 23. 4 घोष (ए). पिलर्स प्रॉफ़ प्रशोक, देयर परपज. ईस्ट एण्ड वेस्ट, न्यू सीरीज. 17. 1967. रोम. पृ 273-75.
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