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अध्याय 1
संपादक का अभिमत
प्राच्यशोध के विकास और साहित्यिक प्रकाशनों में संलग्न सांस्कृतिक संस्था भारतीय ज्ञानपीठ के मंत्री ने सन् १९७१ के प्रारंभ में मुझसे यह अनुरोध किया कि मैं भगवान् महावीर की पच्चीसवीं निर्वाण-शती के अवसर पर प्रकाशन के लिए प्रस्तावित ग्रंथ 'जैन कला और स्थापत्य' का संपादन करूँ। मैंने इस कार्य के लिए तुरंत ही अपनी स्वीकृति दे दी। यह इसलिए कि अब तक प्रकाशित ग्रंथों में यह अपने प्रकार का पहला ग्रंथ नियोजित था और कोई भी व्यक्ति इससे संबद्ध होकर प्रसन्नता का ही अनुभव करेगा। वैसे, भारतीय कला के इतिहास-ग्रंथों में जैन स्मारकों और मूर्तिकला को प्रमुख स्थान प्राप्त रहता है, और विभिन्न स्मारकों और मूर्तियों या इनके समूहों पर इक्के-दुक्के प्रबंध और लेख भी उपलब्ध हैं, किंतु ऐसा कोई विस्तृत ग्रंथ कदाचित् ही हो जिसमें, अपने धर्म को मूर्त रूप देने के लिए जैन तत्त्वावधान में पल्लवित, कला और स्थापत्य का ही पृथक् रूप से विवेचन हो। वर्तमान में, इस विषय से संबंधित जो सर्वेक्षण मिलते हैं, वे न केवल अपर्याप्त हैं अपितु कभी-कभी त्रुटिपूर्ण होने के साथ-ही-साथ उनका झुकाव किसी एक दृष्टिकोण के प्रति प्रकट होता है।
यद्यपि इस प्रकार के ग्रंथ के औचित्य पर संदेह नहीं किया जा सकता, तदपि इसकी प्रतिपाद्य सामग्री की ऐकांतिक प्रकृति पर जोर देना बुद्धिमानी नहीं होगी। यह कल्पना करना कठिन है कि किसी भी जैन कलात्मक या वास्तुशिल्पीय कृति का संबंध भारतीय कला और स्थापत्य की मुख्य धारा से नहीं है या उसे इस धारा से अलग करके देखा जा सकता है । यह भी ठीक है कि जैनधर्म की विशिष्ट धार्मिक और पौराणिक संकल्पनाओं ने ऐसे शिल्प-प्रकारों को जन्म दिया जो अन्य संप्रदायों की कलाकृतियों में नहीं पाये जाते; किन्तु तब भी, ये शिल्पांकन उस प्रदेश और काल की शैली के अनुरूप हैं जहाँ इनका निर्माण हुआ। इस प्रकार जहाँ एक ओर जैन पौराणिक आख्यानों के विशिष्ट रूप -- समवसरण, नंदीश्वर द्वीप, अष्टापद आदि की अनुकृतियाँ विशेष रूप से जैन हैं,
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