Book Title: Jain Dharm Siddhant
Author(s): Shivvratlal Varmman
Publisher: Veer Karyalaya Bijnaur

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Page 13
________________ [२] जैन धर्म 'जैन शब्द संरकृत धातु 'जिन' (जीतने) से निकलता है, मरी समझ में इस लिए यह ससार का अति उत्तम और सब से प्राचीन मत है; जिसने मनुष्यमात्र को सूचित किया कि उसके जीवन का उद्देश्य क्या है ? और क्या होना चाहिये ? उसके नामही ले साधारप रीति से विदित है कि मनुष्य का कर्तव्य केवल जीतना है-जय प्राप्त करना है और किसी पदार्थ को अपने वशीभूत बनाना है । यहाँ रुक कर सोचना पडता है कि किस वस्तुको जीतना है और फिल पर विजय पाना है ? वह क्या है और उस पर विजय पाने का उपाय क्या है ? इन्हीं प्रश्नों पर मेरे अपने निज मतानुसार जैनधर्म की नीय पडी होगी। यदि ऐसा न होता तो इसका यह नाम कदापि न पड़ता। विजय प्राप्त करना चोर का काम है । वीर साधारण मनु. घय नहीं होते, फिन्तु वह असाधारण होते हैं। और इसी दृष्टि से इन विनय करने वाले वीरों के मुण्य आचार्य वीरों में पीर महामुनि स्वामी महावीर जी हुये हैं। यथा नाम तथा गुण । जैसा नाम था वैसा काम भी था। महावीर जी का दूसरा नाम वर्द्धमान था, यह संस्कृत धातु 'वृद्धि' (वढने ) से निकलाहै

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