Book Title: Jain Dharm Siddhant
Author(s): Shivvratlal Varmman
Publisher: Veer Karyalaya Bijnaur

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Page 91
________________ ( १ ) [१६] ब्रह्मचर्य ब्राह में पर्या करने को ब्रह्मचर्य फाइते है। आज कल ग्धी त्याग का नाम महाचर्य रक्खा गया है, वह ठीक है। किन्तु वह इतना ही है। ब्रह्मशब्द के कोष में अनेक यौगिक अर्थ हैं। जैसे तप, ज्ञान, शान, पवित्र, विधा इत्यादि । इन सब सस्मिलित गावों, कर्तव्यों और स्वाध्यायों में रह कर तपरधी की रीति पालन करना ब्राह्मचारी होता है। इन से बीय शीण नहीं होता किन्तु उसे पुष्टि मिलती है और उसकी पुष्टि से साहस की वृद्धि होती है। और यह साहस एपट की प्राप्ति में सहायक होता है। कहा गया है: জ্বা ঘা বন্ধুৰ মান রুমাননি। এখন । स्थलाहारी प्रोत्यागी विद्यार्थी पचनपणम् ॥ कौव्वे जैसी चेटा, बगले जैसा ध्यान कुरते जैसी नीद हो, खाना थोड़ा खाये, खी से सम्बन्ध न रक्खे, विद्यार्थी अथवा भान के साधन करने वालों के यही पात्र लक्षण हैं और इनको मुख्य समझना चाहिए। ब्रह्म आत्मा है। ब्रह्म और आत्मा जीय ही है। जीन के सिवा ब्रह्म और आत्मा कोई नहीं है। जैनधर्म इसे बडे जोर के साथ कहता है। और लोग या तो ब्रह्म और जीव मे भेद मानते

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