Book Title: Jain Dharm Siddhant
Author(s): Shivvratlal Varmman
Publisher: Veer Karyalaya Bijnaur
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE FREE INDOLOGICAL COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC FAIR USE DECLARATION This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. 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We shall work with you immediately. - The TFIC Team. Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म सिद्धान्त अर्थात् धर्म के दश लक्षण लेखक राधास्वामी महर्षि शिवव्रतलाल जी बर्मन, एम. ए., एल-एल. डॉ. राधास्वामी पामराज वनारस श्रीमान् सेठ लोहनलाल जी मालिक, फर्म सुन्नालाल द्वारकादास कलकत्ता प्रकाशक "वीर" कार्यालय विजनौर। २०५४ प्रेमोपहार Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- - - - - - - - - - - - _ मुद्रकवादूराम शर्मा, "वीर" प्रेस बिजनौन । Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना मामा शिवननलाल जी धर्मन का विद्वत्तापूर्ण लेख जैनियों के दशमनरा धर्म पर पढ़ कर मेरा नाकरण उक्त निप्पज्ञ निढान को कोटिशः धन्यवाद दिये बिना नहीं रह सकता है। जिन्होंने प्रजन होते हुए भी इस तरह इस निवन्ध को मालित किया जिसने पढ़ने वाले को इसमें फोर्ड सन्देह नही र जाता कि शापकी गाद भपिन व निष्टा जैन सिमान्ल पर नया धार जैनाचार्यों के बारया का बड़े हार्दिक प्रेम से मनन फन्त श्राप के इस निरन्धसे उन जैन भादयो को शिक्षा प्रहग करनी चाहिये जो जनमत को निरादर की ष्टि से देखने नया कभी २ अपरानों का भी प्रयोग फर बैठने एं। हमें पूर्ण विश्वास है कि यदि शानजिशानु जेन मत र तत्त्वज्ञानरूपी अमृत का स्वाद लेंगे तो उनकी प्रान्मा को • यात संताप होगा और उन्हें सच्चे नुरा का पोत नपने पास ही दिन जायगा। घाम्न में यह जैनदर्शन वस्तु-स्वरूप को दिखाने घाला है। जगत् में यदि केवल जीव ही होता नो भी संसार सम्बन्धी प्रागननाएँ न होनी और यदि अनीस पी अजीव होना नो मी फोर्ड कल्प विकल्प या दुधा सुप के अनुभव के भाव Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ख) नहीं होते। इस लिये यह संसार जीव और अजीव का गठजोड़ा है। इन दोनों का बन्धन ही संसार है, इन ही दोनों का वियोग मुक्ति है। जब तक यह जीव अजीव पर आसक्त बना रहता है व उसकी मनोहरता पर लुभाया रहता है, तब तक इसको मुक्ति का मार्ग नहीं मिलताहै। जव यह जीव अपने भीतर भरे हुए ऐश्वर्य को या ईश्वरपनको या अनन्तज्ञान दर्शन सुख वीर्य की शुद्धि शक्तियों को पहचानता है और उन पर विश्वास लाता है तब इस के भाव में अजीव की चंचल अवस्थाये हेय भासती है व चंचल अजीव के प्रसङ्ग से होनेवाला क्षणिक सुख मात्र काल्पनिक और असंतोषकारी तथा प्राकुलताबर्द्धक फलकने लगता है। यही जैनियों के रत्नत्रयमयी मोक्षमार्ग का पहला __ सम्यग्दर्शन रूपी रत्न है-इस रत्न के साथ जितना जीव व अजीव पदार्थों का विशेष ज्ञान प्राप्त करता जाता है वह सम्यग्ज्ञान रूपी रत्न है। इस श्रद्धा व शान सहित जहां अशांति के मेटने को व शांति के पाने का आचरण है वही सम्यग्चारित्र रूपी रत्न है-यही अभ्यास अजीव की संगति से जीव को हटाता हुआ एक दिन अजीव से छुड़ा कर उसे मात्र एक केवलं जीव या अहंत या तीर्थकर या परमात्मा रूप रहने देता -जब वह शुद्ध जीव अनन्तकाल तक निजानन्द का विलाल करता हुआ परम कृतकृत्य व सर्वज्ञ रूप बना रहता है। इसी Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ग) ध्येय कारनन्य मार्ग है। निश्चय नय से यह मार्ग शुद्ध प्रात्म यान यास्वानुभव है,जहां निज जीवत्व का यथार्थ श्रद्धान, शान न चर्या नीना का अमित मिलाप है-वास्तव में यही वह अनि है जो 'मनीव को जलाती है उसे भस्म करके जोव को छुडाती है, यही वह मसाला है जा जीव को पवित करता है, यही वह अमृत हे जिल का पान जीव को अतीन्द्रिय सुख अनुभव कराता है, यहां वास्तव अहिंसक माय है यही समता भाव है, जहां किसी पर राग है न द्वेष है, यही विश्व प्रेम हे यरी जागृत अवस्था है । सायु का सर्व देश गृहस्थ का एक देश व्यवहार चरित्र भी इसी ध्येय पर बालवित है। उत्तम नमादि दश धर्म का सम्यक्त्राचरण साधु महात्मा करते हे नथा जो ऐसा प्राचरण करते हैं वे हीसाधु हे.इस जीव के वैरी क्रोध, मान, माया, लोम है-ये ही प्रात्मा के गुणों के घातक है। साधु भनेक प्रकार शत्रुओं से पाट दिये जाने पर भी मोध का विकार नहीं लाते अर्थात् उत्तम क्षमा की भूमि में बैठे हुए परम सहनशील रहते है। यदि किसी प्रमत्त साधुकं भावों में किंचित् कोध विकार माजावे तो भी वह पानी में लकीर की तरह तुरन्त मिट जाता है. सातु के वचन - काय की प्रवृत्ति क्रोध कप नही होने पाती है। इसी तरह अपमान के धोने पर भी व अनेक गुणसम्पन्न होने पर भी मान विकार का जलाकर उत्तम मार्दव पालते है। शरीर को भोजन पान के प्रभाव में अनेक कप पड़ने पर भी मायाचार से श निमागे Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को उल्लंघन कर भोजन पान नहीं चाहते हुए उत्तम अर्जिवका वर्ताव करते हैं। न कभी कोई असन्यभाव विचारते न कहते सत्य पर डटे रहते-यदि कोई प्राणों को भी लेवे तो भी सत्य को नहीं छोड़ते यहो उनका उत्तम लत्य-धर्म है । साधु इन्द्रिय विजयी होने हुर क्षणिक पदाथों का लोस न करते हुए उत्तम शौच धर्मों को पालते हुए परमपवित्र रहते हैं। जिनका आत्मा पवित्र है उनके लिये जानादिनी बरत नहीं । उनको आत्मध्यान से शरीर निरोगी व पवित्र हो जाता है । मन व इन्द्रियों पर पूर्ण अधिकार रखते हुए साबु इन्द्रिय संयम तथा विचार के साथ वर्तते हुए व पृथ्वी आदि पटकाय के जीना के प्राणों की रक्षा करते हुए उत्तन संयम पालते है । धर्मध्यन व गुल ध्यान की अग्नि जला कर अपने जीव को तणेते है, कर्माजन हटाते हैं-इच्छानिरोध के अर्थ अनशन, ऊनोदर रस त्यागादि तप करते हैं। यही उत्तम तप है । परमो मारी साधु अपना सर्वस्व नर्व जीनों के हितार्थ जानते हुए जीवमात्र के रक्षक होते हुए अभयदान देते व लप्ततत्त्वों का ज्ञान देते परम दान पान करते हुए उत्तम त्यागधर्म के अधिनारी हैं-मैं हूं लो हूं-मेरा अजोव से व जीवत विकारो से कोई सम्बन्ध नहीं-मैं ममत्त्व निःपरिग्रही परमनिर्गन्य हूँ यही भाव उत्तम प्राकिंचिन् धर्म है। वेत्रात्म ज्ञानी साधु निज ब्रह्म स्वरूप प्रात्मा में चर्या करते हुए श्रात्मानन्द के विरोधी कुशीतजवित विकार को पूर्ण पने त्यागते Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (=) हुए उत्तम ब्रह्मचर्य को पालते है - साधु जन इस दशलक्षण धर्म के आदी है गृहस्थ जैसे पूर्ण श्रहिसा न पाल कर शक्ति के अनुसार उसे पालते, निरर्थक हिसा से बचते -प्रयोजन भूत हिसा के बिना निर्वाह नहीं कर पाते वैसे वे उत्तम प्रकार से इन १० श्रमों को पूर्ण पालने की शक्ति न रखते हुए इन के महत्व का ज्ञान तथा श्रद्धान यथार्थ रखने है परन्तु व्यवहारसे यथाशक्य इनका श्राचरण करते है । जैसे निर्वल शस्य पागल पर क्रोध नहीं करते परन्तु दुष्ट बदमाश पर उनकी दुष्टता छुड़ाने के हतु क्रोध करते व दण्ड देते हैं जब आधीन हो जाता है तो उसके साथ क्षमा व प्रेम सं घर्ताव करते हैं, यो तो मान नहीं करते परन्तु यदि कोई सुट श्राचार्य के साथ अपमान करें तो मान सम्मान के रक्षार्थउल को स्वाधीन करते, यो तो माया नहीं करते परन्तु किसी शुभ संपादनार्थ व शुके निवारणार्थ मायाचार से भी काम लेते, यों तो असत्य नहीं बोलते परन्तु किसी पर होते हुये घात व प्रत्याचार व अन्याय के दमनार्थ यदि कुछ ग्रासत्य से भी काम लेना पढ़े तो लेते, यां तो मन वचन काय से पवित्र रहते परन्तु गृहारम्भ सम्बन्धी लोभ करते हुये व गृह प्रपञ्च में उलझते हुए अपवित्र हो जाने, वो तो संयम का आदर करते परन्तु शक्ति न होने पर न्यायपूर्वक इन्द्रियभोग करते व आरम्भ करते, Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वो तो तप करना श्रेष्ठ जानते पर शक्ति के श्रभाव से स्वल्पतप करते, पूर्ण इच्छा को वश नहीं कर सकते, यों तो ममत्व किसी मे नहीं रखते तथापि गृहपालन पाप्रिवन्ध रख कर धनादि ले परिसित लोग त्याग करके परिमित दान देते-सर्वत्यागी नहीं हो सकते, यो नो सिवाय सजीवत्व के किसी को सी अपना नही समझते तथापि गृहस्थ में चेतन अचेतन पदार्थों को आवश्यक्तातुसार रखतेऔर उनके ममत्व ग्ताने, यो तो ब्रह्मचर्य को ही उपादेय ानते परन्तु वीर्य नी कमी ले पूर्ण शीलन पालते हुए विवाहिता स्त्रीले वर्ताव करते । इस तरह गृहस्थ जन इस उत्तम दशलक्षण धर्म के आदर्श को ही उपादेय मानकर जितनी शक्ति कम है, उतना उनको कम दरजे बर्ताव, में लाते तथा जितनी शक्ति बढती जाती है उतना इनका वर्ताव भी बढ़ाते जाते हैं। इस रीति से इस दशलक्षणधर्म को सर्व मानवसमाज अपनी स्थिति के अनुसार पालकर अ कुलता, क्षोस, रागहेप परपीड़ा करण से बच सकता है और सुख शान्ति, वीतरागता, समता तथा अहिंसात्मक भाव से वृद्धि कर लकता है। __वास्तव में आत्मविकास के ये सच्चे साधन है, क्रोधादि चारकपायों के संहार के ये अमोघ शस्त्र हैं। मोक्ष मन्दिर में पहुंचाने के लिये धर्मरूपी गाडीकेदश पहिये है। सुखामृत पिलाने यो अद्भुत व अक्षीण अमृत के घट हैं। महात्मा शिवव्रतलाल ने इन पर बहुत मनन योग्य प्रकाश डाला है। हम उनके प्रति आभारी है। -३० शीतलप्रसाद Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म-सिद्धान्त अर्थात् धर्म के दश लक्षण [3] भूमिका बाबू कामताप्रसाद साहब जैन पत्र द्वारा इच्छुक हुए फि में जैन धर्म के दशलक्षण धर्म पर अपने विचार प्रगट करूँ । विचार क्या प्रगट किये जांय ? कोई बात मेरे मत अथवा सिद्धान्त के विरुद्ध होती तो मुझे अवसर था कि मैं जैनधर्म ये दशलक्षण धर्म के विषय में पूर्वपक्षी बनता । जैसी मुझे गुरु ने शिक्षा दी है, वही बात में धर्म के विषय में जैनमत में नी पाता हूँ । मुझे उसके साथ सहानुभूति है । मैं इस विषय में जैनमत का विरोधी नहीं हैं, किन्तु उसके साथ मुझे अनुकुलता है । Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २ ) 4 यह विदित हो कि मैं जैनधर्म का अनुयायी नहीं हूँ | मेरा सम्बन्ध राधास्वामी मत से है । बाल श्रवस्था से एकान्तसेवी होने के कारण मैं जैनियों से दो एक मनुष्यों को छोड़ कर - किसी से परिचित भी नहीं हूँ, और न इस समुदाय के लोग मुझे जानते हैं। जो दो एक जैनी मेरे मित्र है, उनके साथ मुझे परिचय इस कारण से है कि वह राधास्वामी मतके विषय में मुझसे पूछताछ करने आया करते थे । नहीं तो शायद न वह मुझे जानते और न मैं उन्हें जानता । 1 इस निबन्ध को पढ़कर कोई यह न कहे कि मैं अन्धाधुन्ध बिना समझे बूझे हुए किसी को प्रसन्न करने के लिए लिख रहा हूँ । मैं जो कुछ कहूँगा निष्पक्ष होकर कहूँगा । निष्पक्षता का श्रङ्ग धार्मिक पुरुष का लक्षण है । परन्तु इससे पहिले कि मैं जैनधर्म के लक्षण अपने विचारों के अनुसार प्रगट करूँ, इस बात के बता देने की आवश्यक्ता है कि जैनधर्म क्या है ? मैं जैनधर्म को आप क्या समझता हूं ? POWANSORCERERS Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२] जैन धर्म 'जैन शब्द संरकृत धातु 'जिन' (जीतने) से निकलता है, मरी समझ में इस लिए यह ससार का अति उत्तम और सब से प्राचीन मत है; जिसने मनुष्यमात्र को सूचित किया कि उसके जीवन का उद्देश्य क्या है ? और क्या होना चाहिये ? उसके नामही ले साधारप रीति से विदित है कि मनुष्य का कर्तव्य केवल जीतना है-जय प्राप्त करना है और किसी पदार्थ को अपने वशीभूत बनाना है । यहाँ रुक कर सोचना पडता है कि किस वस्तुको जीतना है और फिल पर विजय पाना है ? वह क्या है और उस पर विजय पाने का उपाय क्या है ? इन्हीं प्रश्नों पर मेरे अपने निज मतानुसार जैनधर्म की नीय पडी होगी। यदि ऐसा न होता तो इसका यह नाम कदापि न पड़ता। विजय प्राप्त करना चोर का काम है । वीर साधारण मनु. घय नहीं होते, फिन्तु वह असाधारण होते हैं। और इसी दृष्टि से इन विनय करने वाले वीरों के मुण्य आचार्य वीरों में पीर महामुनि स्वामी महावीर जी हुये हैं। यथा नाम तथा गुण । जैसा नाम था वैसा काम भी था। महावीर जी का दूसरा नाम वर्द्धमान था, यह संस्कृत धातु 'वृद्धि' (वढने ) से निकलाहै Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो बढ़ता हो-जिसे यह कारता प्राप्त हुई हो-जो जीवन के तमाम तीर्थों अथवा मन्ज़िलों को लांघ कर तीर्थकर बनो हो, वह वर्द्धमान है । 'मान' शब्द संस्कृत धातु'मा' (मापने ) से निकलता है अर्थात् जिलने वृद्धि की माप तोल करली है और माप तोल करते हुए जिसने उसे अपने श्राधीन कर लिया है । मेरी समझ में केवल वही पुरुष वर्द्धमान कहा जा सकता है। जैन धर्म का चौबीसवां तीर्थङ्कर इस मतके अनुसार मुख्य और अमुपम श्राचार्य है। इससे पहले तेईस तीर्थकर हुये हैं-मुझे उनले कोई प्रयोजन नहीं है । प्रयोजन केवल वर्द्धमान महावीर से है। यह महापुरुप निम्रन्थी अथवा निम्रन्थ था। इसकी शिक्षा किसी ग्रन्थ में नहीं लिखी गई थी। किन्तु इसने जन्मजन्मान्तर की सिद्धियों से जो अवस्था अपने अनुभवसे प्राप्त की, केवल उसी की शिक्षा दी है । एक अर्थ निर्जन्थ होने का यह है। दूसरा अर्थ यह है कि वह अन्थिबद्ध नहीं था । उसने तमाम बन्धनों को तोड़ दिया था । शुद्ध था, मुक्त था और जीते जी उसने निर्वाण (कैवल्य ) पद की प्राप्ति करती थी ! इसलिये उसकी शिक्षा प्राप्त ऋषि के शब्द के रूपमें स्वीकृत और प्रमाणिक है । जो मुक्त है, वही मुक्ति दे सक्ता है। जो बद्ध है उससे मुक्ति की आशा रखना भूल और चूक है। पुस्तकों को पढ़कर शिक्षा देना साधारण मनुष्यों का करतब तो हो सक्ता है, परन्तु वह उतनी प्रभावशाली नही हो सक्ती !प्रभावशाली विशेषकर अनुभवी पुरुषों ही की शिक्षा Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५ ) होती है । ग्रन्थिबद्ध पुरुष ग्रन्थो के बन्धन में फॅसे हुए उन्हो के प्रमाणों के ग्लूटे से बंधे रहते हैं । जब तक वह निर्ग्रन्थ और अनुभवी न हो तब तक लसार उनको जैला चाहे वैसा माने उसे अस्तयार है । मै तो देवत ऐसे गुरु का सेवक हूँ. जो अनुभवी और सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र की झलकती हुई मूर्ति हो ! उस चूश्यानिशी का दिला नै मुरीद ह जिसके श्याम जुहद में ये क्या न हो । जैनमत को मै वीर मार्ग इसलिये कहता है कि उसके सारे के सारे श्राचार्य ( तीर्थंकर) क्षत्री रहे है | क्षत्री-संस्कृ धातु 'दाद' (जड़) से निकला है । जो सबकी जड़ हो वह क्षत्री है | यह ससार में श्रादि वर्ण है । और इसका मन्तव्य केवल जीतना और विजय पाना है । ब्राह्मण वर्ण क्षत्रियों के पोछे आया है और इसकी पद्धति की नीव भरत जी ने रक्खी थी । इसलिए यह संसार में दूसरा वर्ण है । मनु पहिला क्षत्री था और मनुष्य मात्र प्राणियों का मूल पुरुष उसोको समझना चाहिये । इस दृष्टि से जैनधर्म श्रादि धर्म -राजधर्मक्षत्री धर्म और वीर धर्म है। और इसलिए वह सबमें श्रेष्ठ है । मनु जी ने श्राप अपनी स्मृति में कहा है, "क्षात्र धर्म परो धर्म." अर्थात् क्षत्रियों का धर्म ही तमाम धर्मो से ऊँचा है । श्रौर यह सबमें उत्तम है । Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६ ) क्षत्रियोंका धर्म शान है, जिसके दो अंग दर्शन और चरित्र हैं। ब्राह्मणों का धर्म कर्म है । ज्ञान अन्तर मुख्यता है-कर्म वहिर मुख्यता है। लोग मेरी बात को सुनकर आश्चर्य करेंगे, परन्तु यह सच्चो बाते है । विजय ज्ञान से मिलता है। केवल कर्म से प्राप्त नहीं होता और यह विजय उस समय तक नहीं मिलता जब तक कि कोई क्षत्री न घने और क्षत्रियों को रीति से उसका संस्कार न किया जाय । क्षत्री सदैव से ज्ञान मत के प्राचार्य रहे है। ब्राह्मण सदैव ले कर्ममत के प्राचार्य हुये है। ज्ञान का सम्बन्ध क्षत्रियों ही से रहा है । उपनिषदों की परम्परा क्षत्रियों की परम्परा है। इस बातको वादके शंकराचार्य ने भी अपने 'शारीरिक भोप्य' में स्वीकार किया है । और ज्ञान के विषय में कई जगह उपनिषदों में कहा गया है कि यह ब्राह्मणों में कभी नहीं था। और होता कैसे ? क्योंकि इसके शिक्षक क्षत्री ही रहे हैं। जो पहले उच्च वर्ण के मनुष्य थे । ब्राह्मणों का वर्ण दूसरा और उनसे नीचा है। जिसका जी चाहे, उपनिषदों को पढ़कर अपना संतोष करले! Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३] परिभाषाओं में जैन धर्म की जड़ किसकी विजय करना है ? और कौन विजय करने वाला है? यह दो प्रश्न है । महावीर स्वामी ने इनका निर्णय इस सुन्दरताई से किया है कि पक्षपाती और हठधर्मी मनुष्यों के सिवाय दुसरे कभी भी उनके सिद्धान्त फा खराहन करने के लिए उद्यत नहीं होंगे! वह कहते है यह जगत् जीवामीव है अर्थात् जीव और अजीव से भरा हुआ है। अजीध विजय किये जाने के पदार्थ है और जीव को विजय प्राप्त करना है । यह जैनमत का निचोड है ! यही संसार में हो रहा है। जहां मनुष्य की दृष्टि खुली और नो वस्तु उसकी दृष्टिगोचर हुई उसी समय वह उसके पकड़ने और वश में लाने के लिये हाथ फैलाता है । बच्चों में देखो-पशुओं में देखो तमाम जीवधारी जन्तुओं के जीवन में देखो। इस जगत् में हो क्या रहा है ? मनुष्य का छोटा बालक यदि सांप को देखेगा नो उसे हाथ से पकह कर अपने मुंहमें रखने का उद्योग करेगा। यही दशा पशुओं की भी है । इस सचाई से कौन इंकार कर सकता है ? अब रही यह यात कि बच्चों का करतब पान के साथ है या अशान के साथ ! यह दूसरी बात है । यह न हमारा इस समय आशय है और न हम इस पर अधिक अपना भाव प्रगट करने का समय रखते है । यह जीव का प्राकृतिक स्वभाव त Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( = ' ) है, जिसकी सचाई में सन्देह करना केवल मूखों का काम होगा । सांख्यमत का प्रवत्त के कपिल श्राचार्य क्या कहता है ? "प्रकृति चाहती है कि पुरुष उस पर विजय पावे ।" घर रहने वालों के लिये है, मेज़ व कुर्सी बरतने वालों के लिये ह । इस लिये पुरुष का धर्म है कि वह इनको अपने वशमें लाये । जब तक यह प्रकृति वशमै नहीं आती तब तक सौ २ नाच नचाया करती है और जहां पुरुष ने साहस करके इसको दबोच लिया; फिर वह लज्जित हो जाती है और पुरुष को प्रसंग छोड़ देती ह | विना विजय किये हुये सत्ज्ञान की प्राप्ति दुर्लभ है । यह प्राकृतिक स्वभाव है । और इस लिये हम जैनमत को प्राकृतिक धर्म ( Natural Religion ) कहते हैं । पुरुष और प्रकृति और कोई पदार्थ नहीं हैं, वह जीव और अजीव हैं । 1 सब कुछ कर लिया- पढ़ा लिखा, सोचाविचारा, गौरव, वित्त, प्रतिष्ठा, सम्मान, यश, कीर्ति इत्यादि प्राप्त कर लिये, परंतु प्रकृति वश में नहीं आई ! इस लिये श्री महावीर स्वामी ने त्रिरत्न अर्थात् सम्यक् दर्शन, सम्यकज्ञान और सम्यक् चारित्र की शिक्षा देते हुए इन्द्रियोंके जीतने और मनको वशीभूत करने · की युक्ति सुभाई । कबीर जी की वाणी है: 1 'गगन दमामा बाजिया पडी निशाने चोट कायर भागे कुछ नही सूरा भागे खोट Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नीरनुप से भो लडे सो तो वीर न.होप : माया त मलि फरे दौर काय सोय ॥ वीर तसा मान ग मारे पांच गनीम : मेम नगाया पनी को साथी बढी फाहोम ॥ जिस जीवाजीय का पना हमने सांध्यदर्शन की परिभाषा पुक्र और प्रति में दिखाया है और जो वशिष्ठ सूत्र में कहता है कि सिवाय पुमय और प्रकृति के खेल के इस जगत का रचन घाला कोई फल्पित अधया सत् ईश्वर सिद्ध नहीं होना। “ईश्वराऽसिद्धे।" वही पता हम नहा शब्द की परिभाषा में देते है। ब्रह्म परिमापा दो शब्दों से बनी हुई है। 'वह (बढ़ना) 'मनन' (सोचना । अथवा जड़ और चेतन । चेतन क्या करता हैं। जड़ पदार्थ पर हाथ मारता है । जैसे पुरुष स्त्री पर हाथ डालते हुए नीचे गिरा देता है शोर उसे अपने वशीभून करके आधीन बना लेता है। यहांपर जिसका जी चाहे सोचे विचारे कि यह जगत् प्रात्रमय है या नही हे ? यह जगत् जीवाजीय है या नही है ? यह जगत् जानमय है या नहीं है ? मैं मानता हैं कि जैनियों के धर्म में बहुतसी बाहरी फलिन बात आगई है, परन्तु विचारशील मनुष्यों की रष्टि में केवल वही प्राचीनतम श्रीर प्राकृतिक धर्म ठहराता है। ब्रह्म परिमापक अर्थ कोई लाख अगड़म बगड़म और अन्डयन्द्र करे, उसे स्वतंत्रता है। और वह साहस फरक पर्थ का अनर्थ कर रहे है, परन्तु परिमापा स्पष्ट है। कोप देखो, धातु देखो, शन्द की जड़ को देखो ०२ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १० ) फिर तुम्हारे जो जीमें आवे कहो और वैसा मानो। इसी प्रकार और कितनी ही परिभाषायें मिलेंगी जो विचारवान मनुष्यों के लिए सोचने का अवसर देगी कि अर्थ के अानर्थ करने पर भी उनकी जड़ों में जैनमही का सिद्धान्त घुसा हुआ है और घुसा पड़ा है। कोई जैन मंदिर में जाये चाहे न जाये, कोई उन पर श्राक्षेप करे या न करेन इससे हमारा सम्बन्ध नहीं है। हम जो बात कहते हैं केवल उसी पर विचार करे और वह निन्यानवें • पने सहमत हो जायगा। भा MAMERA Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११ ) [ % ] धर्म धर्म क्या है ? यह दो शब्द 'धृ' ( धारणं करना ) और 'म' ( मन ) से निकला है । मनसे जो पकड़ा जाय, सोचा जाय, विचारा जाय और जिसपर मनुष्य आरूढ़ हो, वह धर्म है । इस धर्मका श्राशय क्या है ? इसका आशय यह है कि अन्तर और बाह्य जगत् के पदार्थों पर इस धर्म के सहारे विजय प्राप्त की जाय । इन्द्रियां वशमें आवें । मन पर सवारी की जाय । तब जाकर कहीं सच्ची विजय प्राप्त होगी। कंवीर सा० फरमाते हैं: मन के मते न घालिये, मन के मते अनेक ; जो मन पर सवार हैं, सो साधू कवि एक । जब लम झटपट में रहे तब लग खटपट होय ॥ जब मनको खटपट मिटे झटपट दर्शन होंय, aisa दौडत दौडिया जहा लग मन को टोड । दौड थके मन धिर भया; वस्तु ठौर को ठौर 2 + यह मन काग या करता जीवन घात ; अव यह मन हंसा भया, मोती चुन चुन खात इन दोहों के अन्दर जैनमत का सार भरा पड़ा है, यद्यपि कवीर सा० जैनी नहीं थे और न उल के सिद्धान्त से परिचित Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२ ) थे। इन दोहों में सम्यक्दर्शन, सम्यकशान और सम्यक्चरित्र का उपदेश भरा पड़ा हुआ है । दर्शन, ज्ञान और चरित्र के लिए लमता की सब से अधिक बावश्यकता है। यदि समता नही है तो कुछ भी नहीं है । सम(समता)धा (धारण करना) सनाधि है। जब तक कोई मनुष्य समदर्शी, समनानी, और समव्यवहार वाला नहीं, वह क्यों धर्म की डींग मारा करता है और उसले लाभ क्या है? धर्मका तात्पर्य केवल इतना ही है कि लमता की प्राप्ति हो। और जैन-धर्म इसीपर जोर देताहै। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३ ) [५] अहिंसा परमोधर्मः। जैनमन अहिंसा का मार्ग है । हिंसा' कहते हैं दुःखाने फो। किसी प्रकार का हःख देना चाहे वह कायिक हो या मानसिक हो अथवा वाचनिक हो। यह तीन प्रकार का दुःख देना'हिंसा' कहलाता है। और इन दुःखों से बचकर रहना अहिंसा' है। अदिसा शब्द का अर्थ केवल इतना ही है। कहने के लिये यह एक बात है घसीउल्मुराद, परन्तु सोचने के लिए इतना बड़ा विषय है कि उसमें वह तमाम गुण आ जाते है, जो एक पूर्ण मनुष्य में सम्मवित है, अथवा उसमें हो सक्ते हैं। यह सबसे पड़ा धर्म है । यदि यह आगया तो फिर कुछ करने धरने की आवश्यकता नहीं रहती।यहिंसा प्रेम है-अहिंसा प्रीति प्यार है-अहिंसा केवल और सच्ची भक्ति है । अहिंसक होना कठिन और दुर्लभ है। अहिंसक न किसी का शत्र है, न कोई उसका शत्रु है। वह जहां चाहे रहे । प्रेमकी मूर्ति बना हुश्रा सारे जगत् को शोभायमान करता रहेगा और जैसे सूरज से ज्योति की प्रभा की वर्षा होती रहती है, वैसे ही उससे, उसके स्वरूप से, उसकी छाया से और उसकी सांस सांस से दो दिशाओं में मंगल मानन्द और सुखकी धार हर समय बिखरती हुई संसार को स्वर्ग सरश पनाती रहती है। Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४ ) हम हिन्दुओं में संसार की सबसे प्राचीन पुस्तक ऋग्वेद की ऋचा है, "मित्रस्य चतुसा सम्यक महे" अर्थात् सबको मित्र की दृष्टि से देखो । ऐसा मित्र वन ना संभव है, अथवा असंभव है ? सोचने की बात है। यदि असंभव होता तो ऐसी बात न कही गई होती। कहा जाता है,जगत् देव असुर संग्राम है और आधनिक समय के फिलासफरों इत्यादि का कथन है कि यह जगत् हाथापाई का स्थान है। हिन्दू भी वेदों की वाणी का प्रमाण रखते हुए भी उसे देव शासुर संग्राम कहते हैं। इन सवकी दृष्टि में अहिंसक होना असंभव है। परंतु जैनधर्म ने इसको संभावित समझाकर अपने धर्म की नीव इसी पर स्थिर की । तीर्थंकरों ने इसे संभवित समझ और अपने जीवन को दिखा कर सिद्ध कर दिया कि मनुष्य अपनी पूर्व अवस्था और पूर्व गति में अहिंसक हो सकता है। श्राहसक हुए हुए विना निर्वाणपद की प्राप्ति नहीं हो सकती । अहिंसा ही न केवल निर्वाणपद की सीढ़ी है, किन्तु वह जीते जी निर्वास की अवस्था है। निर्वाण क्या है ? "फूक कर बुझा देना ।" निर (से) और वाण (फूकना)। क्या चीज़ फूंकी जाती है ? जीव में जो अजीवपना घुस गया है, उस को अलग कर देना, उस से छुटकारा पा जाना-उसको दूर कर देना यह निर्वास है। निर्वाण का अर्थ केवल इतना ही है। निर्वाण मृत्यु अथवा मर मिटने का नाम नहीं है। यह सच्चा रास्ता है; जिस में जीव जीव हो जाता है और अजीवपर्ने के सारे धन्धन जिन से Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । १५ ) वह अबतक बंधा हुआ था सदैव के लिए छूट जाते हैं। न उस में काम है,न क्रोध है. न मोह है, न श्राहकार है, न उससे किसी को घाव है-न लपट है- श्राशा है, न निराशा हैयह निर्वाण है। यह एक ऐसी प्रानन्ददायक अवस्था है जिसे जैनी परिमापा मे सिद्धपद' बोलते हैं । बहुत कम ऐसे मनुष्य है जो इस की समझ रखते है। बहुधा तो इसे मिट फर समाप्त हो जाना ही समझ रहे हैं। यह जीव की असली अवस्था, असली रूप और वास्तविफ दशा है। जीव का अजीव केसाथ अनादिकाल से सम्बध है। उस में अजीव का संग दोप घुस गया है; वह है कुछ, और इन के मेल प्रभाव से कुछ का कुछ करता रहता है, और शब्द, स्पर्श रूप, रस, गन्धका पात्र बना हुआ इन्हीं के व्यवहार को सप कुछ समझ बैठा है, अपनी असलियत को खो बैठा और जीव के अजीव मेल का रूप बन गया। यह किस तरह सम्भव है ? इस का उत्तर केवल एक शब्द अहिंसा है। इस हिंसा धर्म का पालन करने से उस में जो जो अजीवपने संस्कार प्रवेश हो गये हैं उन की आप ही जड़ कटती हुई चली जा रही है। रोक थाम होती रहेगी और जव पूर्णरीति से यह दर हा जायंगे तव जीव अपने स्वप्रकाश में आप स्वयम् प्रकाशवान् और अपनी पूर्ण अस्ति में आप स्वयं दिव्यमान हो रहेगा। यह निर्वाण है, यह सिद्धपद है, यह पूर्ण जीवन है और इसी का दूसरा नाम तीर्थंकरपणा है। अहिंसा दया का कानून है। इस संसार में जोधेचैनी व्या Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुलता, घबराहट इत्यादि का आन्दोलन मचा हुश्रा है, वह केवल हिंसा के कारण है। अहिंसा शान्ति है-हिंसा अशांति है। ___ वाज़ार ले हिंसक चिड़ीगर गुजरता है, कौए इस के सिर पर मैंडलाते हुए कांव कांव करते हैं। कुत्ते उसके पीछे पड़कर भौं भी भोकते हैं और जब तक उसे बस्ती के बाहर नहीं निकात पाते, तब तक चैन नहीं लेते। परन्तु जब कभी कोई प्रेममय अहिंसक साधु का गुजर बस्ती से होता है, शान्ति छा जाती है। कुत्ते उसकी देह से निर्भय हो कर स्पर्श करने लगते हैं। इन पशुओं को यह निश्चय होजाय कि यह प्राणी अहिंसक है, फिर वह उसे कभी दुःख नहीं दगे। कौन जाने ! इनमें कौन कौन सी बुद्धि है जो निश्चय कराती रहती है कि अमुक पुरुष हिसक है और अमुक पुरुष अहिंसक है। विचार करने से ऐसा विदित होता है कि इन की देह से किसी प्रकार की घृणित धार निकलती होगी जिसे यह देख लेते हैं। और उसी के अनुसार उसका व्यौहार होता है । इस धार का अंग्रेजी नाम 'भारा' ( Oura ) है, जो देहधारियों के चारों ओर मण्डल बांधकर रहता है और वह रोमरसेहर समय निकलता रहता है मनुष्य उसे नहीं देख सकता। वह इतना सूक्ष्म है कि मनुष्य की स्थल ऑखों के साथ सदृश्यता और अनुकूलता नहीं है। परन्तु इन पशुओं की है। मनुष्य के छोटे बच्चे भी इसी प्रकार काम करते हैं। वह भी औरों को देख कर भाँप जाते हैं कि उनसे बातचीत करने वाला अथवा उनके सन्निकट पाने वाले पुरुष वा स्त्री कैसे हैं? Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७ ) मुझे स्मरण है कि जब मैं 'आयंगजट' लाहौर का सम्पादक था। उस समय फुरकियाँ ( चिड़ियाँ) जो घरों में रहने वाली छोटी पक्षियों हैं, खाने की थाली के सामने आते ही, शोर मचाती हुई मेरे इधर उधर फड़फड़ाती और मंडलाती थी। कोई मेरे सिर पर बैठ जाती थीं कोई कंधे पर और मेरी थाली से चावल के दाने चुन चुन कर खाती रहती थीं। में प्रसन्न रहता था । यह अवस्था वर्षों तक थी, परन्तु जब कोई दूसरा मनुष्य आगया तो वह परों को फड़फड़ाती हुई फुदक कर उड़ जाती थी, इसका कारण अहिसा ही था। क्योंकि आर्यसमान से सम्बन्ध रखता हुआ भी न मैं किसी मतमतान्तरका खण्डन करता था, न मेरी लेखनी से कभी हृदय दुखाने वाले लेख निकलते थे। मैं जव तैला था अब भी वैसा ही हूँ । निर्पक्ष हैं। पक्षपात रहित हूँ। मनुष्य कुछ न करे-मनवचन और काया से अहिंसक होने के प्रत्यन में लगा रहे । उसके हृदय में प्रेम भरा हो। और यह सारा जगत् उसका कुटुम्ब प्रतीत होगा-चित्त का विशाल और मन का उदार होता जायगा। उससे किसी की हानि नहीं पहुंचेगी। और सब आप ही आप उसे प्यार करने लगेगे। यह मेरा निजका अनुभव है और यह अनुभव सिद्ध है । अहिंसा दया का मार्ग है: "दयाधर्म का मूल है, धर्म दया का मूल । दयावन्त नर को कमी, महीं व्यापै मग सून ॥ १॥ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८ ) - भाव मन में नहीं कथे कथन दिन रात । वह नर इस संसार में, भवसागर वह जात ॥ २ ॥ दया भाव हृदय वते, दयावन्त हो जो । सच्चा ज्ञानो जगत् में, निश्चय समभो सो ॥ ३ ॥ देना हो तो प्रेम दे, लेना हो तो गुरु नाम ! फिर जग में व्यापे नहीं, क्रोध लोभ और काम ॥ ४ दया धर्म का मूल है, पाप मूल अभिमान । दया दिन नर जगत् में, भोगे नरक निदान ॥ ५ ॥ सतसमागम मुक्ति गति, मिले दया का दान । दया चमा से पाईए, भुव पद पद निर्वान ॥ ६ ॥ 'राधास्वामी' की दया. सूझा अगम अलेख | दया धर्म का मूल है, जाना भाँखों देख ॥ ७ ð Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६ ) [६] धर्म के दश लक्षण ! धर्म की जड वतादी गई । जैनियों ने अहिंसाको परम धर्म माना है । यह धर्म बीज है । और जब धीज में अर आता हैपत्ते निकलते हैं-टहनियाँ थोर शाखाये उत्पन्न होती हैं, फूल जाते हैं. फूल से फल प्रकट होते हैं, तव उनको देखकर मनुप्य समझने लगता है कि यह अमुक प्रकार का वृक्ष है। पर फल फूल के देखने से उसके नामरूप की परख होती है। यह संसार नाम और रूप का विस्तार है। नाम और रूप के विना कुछ नहीं होता। अहिंसा परम धर्म है। जैनाचार्यों ने उसके दश लक्षण ठहराये हैं। जिनके नाम हम तुमको यहां सुनाते हैं:-(१) क्षमा (२) मार्दव, (३) आर्जव, (४) सत्य, (५) शौच, (६) संयम, (७) तप, (८) त्याग, (६) प्राकिञ्चिन्य (१०) आर ब्रह्मचर्य । यह दशलक्षण धर्म है । जो धर्म के स्वभाव कहे जाते है । इनकी सम्मिलित अवस्था व्यौहार प्रतिभास और परमार्थ की रोशनी से मिली जुली पद्धति में रत्नत्रय कहलाती है, जिनके नाम सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र हैं । तीर्थङ्करों ने इन्हीं के ग्रहण करने को शिक्षा दी है। (१) समा सहनशीलता है। दूसरे के अपराध को दृष्टि Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २० ) में न लाकर उसके साथ प्रेम पूर्वक समता का वर्ताव करते रहना दया है । ( २ ) मृदुल भावका नाम मार्दव है । नरमदिली और नरममिजाज़ी को मार्दव कहते हैं । ( ३ ) आर्जव सरल भाव को कहते हैं। सच्ची और साधारण वृत्ति का होना श्रर्जव कहलाता है । ( ४ ) किसी की भलाई मात्र का भाव लेकर बोलना सत्य है । जिससे किसी को हानि पहुंचे, अथवा उसके मनको चोट लगे ऐसी सच्ची बात से भी हिंसा होती है। उससे बच कर रहना ही पुरुष का लक्षण है । मनुजी कहते हैं: - " सत्यं यात् प्रेम ब्रूयात् नात्रयात् सत्यम् श्रप्रियः " । सच बोलो, प्यारा बोलो, अप्रिय सत्य को कभी जिह्वा से न निकलने दो । सत्य प्रिय है । अप्रिय सत्य बकवास है । (५) शौध शुद्धि को कहते हैं । यह अन्तर बहिर दृष्टि से दो प्रकार की है । व्यौहार शुद्ध हो, भाष शुद्ध हो, इनको शुद्धि कहते हैं, विशेषतया मनकी सफाई का नाम शुद्धि है । ( ६ ) संयम इन्द्रियों की पूर्ण रोकथाम का नाम है । संस्कृत 'सम' (बिल्कुल ) और 'यम' ( रुकावट ) ( ७ ) मन को गरमी पहुंचा कर रोक रखने का नाम तप है । Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८) त्याग छोड देने का नाम है, जिसे धैराग कहते हैं। (९) अपरिग्रह का नाम प्राकिञ्चिन्य है । किसीसे कुछ न लेना अपरिग्रह है। . (१०) साधारण दृष्टि से ब्रह्ममे चर्या करना ब्रह्मचर्य कहा गया है। और साधारण रीति से स्त्रीजाति अथवा विषय भोग से बच कर रहने को ब्रह्मचर्य कहते हैं । __, यह दश धर्म के लक्षण हैं "क्षमा, मादव, भाजप, सत्य, शौष और त्याग । सयम, तप, श्राकिंचना, ब्रह्मचर्य थनुगग ॥१॥ यह दशलपण धर्म के, समझ साधु सुनान 'उत्तम कपनी, करनी, कर लहे दशा निर्वान ॥ २॥ कमल नीर व्यवहार हो, मुगारी की रोति । जगमें रह जगका न हो, इन्द्रियमन को जीत ॥३॥ जो जीते मन इन्द्रिय को, वही पहावे जैन।' गुरुपद कमल को धन्द नित, समझ गुरुके वैन ॥४ 'राधास्वामी, की दया, सत्संग कर सुपरतीत । हमने समझा सारतत, धार संतमत गति ॥ ५ ॥ अब इन दशों की व्याख्या अलग २ की जायगी, जिसमें एक २ का तत्व भलीभांति समझ में आजार।' - Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२ ) [ ७ ] नमा क्षमा संस्कृत धातु 'क्ष' (संतार का बरवाद करना) और 'म (मन ) से निकला है । मनसे किसी के अपराध को भूल जाना, दूसरों के अनुचित व्यवहार की ओर से दृष्टि को रोक कर उसकी ओर ध्यान न देना और मनसे अनुराग और प्रेम रखना क्षमा कहलाता है। उत्तम क्षमा क्रोधके उपशम अथवा क्षय से होती है। जब तक मनमें लेशमात्र भी क्रोध अंग है: तब तक क्षमा नहीं पाती। क्रोध के क्षय का नाम ही तमा है। इसके अतिरिक्त और कोई नहीं है। क्षमा से दूसरे मारे जाते है, परन्तु जो प्राणी क्रोध करता है वह अपना आप सर्वनाश करता है। क्रोध करने से मन, इन्द्रियां, नस, नाड़ीइत्यादि अपने २ स्थान को त्याग देती हैं। समता की हानि होती है। और जब शरीर के अन्तरभाग में क्रोध की अग्नि प्रचण्ड हो जाती है तो मनुष्य कम्पायमान हो जाता है। एडी से लेकर चोटी तक उसके अन्दर भाग लग जाती है, उसके प्रज्वलित होने से रक्त, मांस, मज्जा, धातु गर्म चूल्हे पर चढ़ी हुई हांडी की तरह खोलने और उवलने लगते हैं। आंखें लाल भभूका बन जाती है। और यदि कहीं जिह्वां खुल गई तो फिर उसके द्वार से ज्वाला फूट निकलती हैरोमांच हो जाते हैं। रोम-रोम से गरम भाप निकलने लगती है Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३ ) और पेड़ी से लेकर चोटी तक अनि व्याप्त हो जाती है। ऐसा मनुष्य कहीं का नहीं रहता । उसका धीरज जाता रहता है। बुद्धि नए भ्रष्ट हो जाती है । हठीला और मिट्टी हो जाता है और धर्म का तो ऐसा लोप हो जाता है कि वह अपने आप को बिल्कुल ही भूख जाता है । मर्यादा का उल्लङ्घन हो जाता है और मर्यादा भ्रष्ट पुरुष कोडी काम का नहीं रहना । वह आप अपना अपमान करा लेता है । और दिन प्रति दिन विचार शक्ति से हीन होता हुआ, बैल बनता हुआ मित्र को शत्रु धनाता हुआ, संसार की ओर से तो दरिद्री हो जोता है और परमार्थ धन तो उसके कभी हाथ ही नहीं लगता । धीरे २ जय क्रोध करने की आदत पड़ जाती है, नव वह चिडचिडा हो जाता है। और घर के सम्बन्धी प्राणी न केवल उसका अपमान करने लगते हैं, किन्तु सब उससे दूर भागते रहते हैं और वह मर कर दूसरे जन्म में ऐसी अधोगति को प्राप्त होता है कि यदि सौभाग्य से उसे सन्तों का सत्सङ्ग न प्राप्त हुआ तो वह जन्म जन्मान्तर तक ही विगदता ही चला जाता है। उदाहरण के लिये देखिये: CING (१) मैं लाहौर गया हुआ था और बिच्छूवाली मुहल्ले में रहता था। एक दिन देखता क्या हूँ कि कोई घावू छोटे बालक के सर पर फोनोग्राफ़ के पचास तवे रखाये हुये गली Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४ ) से गुजर रहा है। श्रार उस बालक नोकर से वह क्रोध से बुरा भला कहता चला जा रहा है । लड़का चुपचाप सुनता जाता था-इसकी किसी बात का उत्तर नहीं देता था । इसे ओर क्रोध आगया । मुँह पर ज़ोर से एक तमाचा मारा, पचासो तवे पृथ्वी पर आ रहे । लड़कान संभाल सका । यदि एक एक बात तीन २ रुपये का था, तो देखो इस क्रोधी मूर्ख ने किस तरह क्रोध द्वारा अपनी पचास रुपये की हानि एक क्षण में करली । लड़को ता यह दशा देख कर मुस्कराया और माग गया । बाबू की कुछ न पूछिये-उसकी जो दशा हुई होगी वहे श्राप ही समझ सका है । (२) बरेली में मेरे दो आर्यसमाजी मित्र रहते थे। एक कहता था "संसार से साधुओं का लोप हो गया।" दूसरा कहता था; "नहीं, संसार में साधु हैं ।" इस पर उनमें वाद विवाद होने लगा । अन्त में यह सम्मति हुई कि चल कर इसकी परीक्षा करनी चाहिए। प्रातःकाल का समय था। दोनों उठे-समीपं ही में कोई नाम का साधु झोपड़ी में रहता था। दोनों मित्र उसके समीप जाकर कहने लगे-"वाबा जी! तुम्हारे घर में आग है, दे दो-सरदी लग रही है। हम सेक कर उससे मुक्ति पा जायं । साधु ने उत्तर दिया, “यहाँ अग्नि नहीं है।" वह बोले; "अग्नि ओप के यहाँ अवश्य है।" साधु क्रोधातुर हो गया, 'क्या मैं झूठ कह रहा हूँ?" उन्हो ने कहा 'अभि तो आप के पास है। हमें उसकी वू आरही है साधु।' Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५. ) ने चिमटा उठाया, "जाते हो, या मैं तुमको बुरा भला कहूँ ।' यह बोले -"अग्नि से धुवॉ फूटने लगा । जहाँ धुवाँ होता है वहाँ श्राम अवश्य होती है ।" साधु चिमटा लेकर इनके पीछे पड़ा । यह भाग निकले । श्रागे २ यह और पीछे २ साधु, और यह कहते गये - " श्रव तो अनि घोर प्रचण्ड होगई । उस में से ज्वाला फूट निकली । उस के कोप से ईश्वर बचाय ।" और छपनी राह ली । थोडी दूर पर किसी और साधु का भौंपडा था । उन्होंने उसके सन्निकट जाकर वही प्रश्न किया । साधु ने नम्रभाव से उत्तर दिया कि "यहाँ अग्नि नहीं है ।" यह कहने लगे, "आप के पास अग्नि अवश्य है ।" वह समझ गया, इनका क्या तात्पर्य है -- कहा " श्राश्रो, बैंटो ! मैं अग्नि का प्रबन्ध कर दूंगा ।" वह उसके पास जाकर बैठे । साधु ने कहा- पुत्रों ! श्रग्नि ढो प्रकार की होती है। एक सामान्य, दूसरी विशेष । सामान्य श्रम से किसी की हानि नहीं होती । वह किसी का शत्रु नहीं है और न कुछ भस्म कर सकती है। विशेष अग्नि से यह काम हो सकता है, यह सारा जगत् अग्निमय है । श्रनि अपने मण्डल में सर्व व्यापक तत्वभूत है । मुझ में, तुम में और सारे संसार में श्रग्नि है। यदि तुम्हें सर्दी से दुःख हो तो अपने मन में केवल विचार से श्रग्नि को प्रज्वलित कर लो और तुम्हारा शरीर गरम हो जायगा । यह शक्ति मनुष्य के ख्याल में है । अगर वह सर्दी का सल्प उठाना रहेगा तो ठण्डा होता चला Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६ ) जायेगा और यदि गर्मों के भाव को चित्त देकर मन को ज़रा __ हिला देगा तो उसके शरीर में देखते २ गर्मी श्रा जायगी । तुम मेरे पाल बैठो, मैं तुम को यह अग्नि दूंगा और जो तुम्हें बाध अग्नि की आवश्यक्ता है तो यह दियासलाई फी डिबिया मोजूद है, लकड़ी ओर. कराडे भी रक्खे हुए है, अभी अग्नि प्रज्वलित हो जायगी।" - दोनों ने स्वीकार किया, अभी संसार में साधु है । भार उसले प्रसन्न होकर अपनी २ राह ली । (३) अब बुद्धदेव काशी में श्राकर बौद्ध धर्म का प्रचार करने लगे। एक ब्राह्मण जाति का जवान लडका उन के पास आकर कहने लगा-"ये मुंडमुन्डे ! तुझे किसने वुद्ध बनाया. है और तू कैले अपने आप को संसार का गुरु कहता है ? तुझे गुरु भाई का क्या अधिकार है ? तू क्षत्री था। क्षत्री धर्म का पालन करना । ब्राह्मणों की पदवी पर क्यो हस्तक्षेप कर ___ बुद्धदेव मुस्कराये । इसे क्रोध आ गया, और गालियों पर गालियाँ देना प्रारम्भ किया । बुद्धदेव चुपचाप खड़े रह गए । जब गालियां समाप्त हुई, आपने नघ्रभाव से पूछा"बेटे ! बदि तू कह चुका हो तो मैं भी कुछ अपने बचन सुनाऊँ।" यह फिर वोखला उठा । फिर अनुणित और असभ्य दाते कहने लगा । युद्धदेव सहनशीलता से उस की बातों Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । २७ ) को बरदाश्त करते गए । अब वह थक थका कर तीसरी दफा चुप हुश्रा, बुखदेय ने फिर वही प्रश्न उसले किया-"घेटे, क्या श्रय में भी कुछ बोलू ?" उसने उत्तर दिया-"कह क्या कहता है ?” बुद्धदेव चोले-'चेटे! यदि कोई मनुष्य तेरे पास भेंट की सामिग्री उपहार की रीति ले लाये और तू उसे स्वीकार न करे, तो यह भेंट किसकी होगी "मोधो ब्राह्मण मित्र ने उत्तर दिया। "इसी बुद्धिमानी पर तुम बुद्ध बने हो? आंख नहीं और नाम नैनसुख ! वोध नहीं और युद्ध कहावे, ज्ञान नहीं और ज्ञानी बने, ऐसा नर मूर्ख जग में कहावे । यह भेंट उसी की होगी जो लाया था लेने वाले ने न लिया तो क्या हुआ! वह अपने घर लेकर चला जायगा। बनदेव पोले:-"चेटे! तू मेरे लिये गाली का उपहार लाया है। यदि मै उसे स्वीकार नहीं करता तो क्या यह गालियों की भेट उलट फर तेरे लिये हानिकारक नहीं हागी?" नौजवान ब्राह्मण चुप ! काटो तो लहू नही बदन में। बुद्ध ने फिर अपना भाषण प्रारंभ किया:-'ऐ बेटे! जो सूरज पर थूकता है-थक सूरज तक न पहुँचेगा, लौटकर उसी के मुंह पर गिरेगा और उसे अशुद्ध कर देगा। ऐ बेटे!जो प्रतिकूल वायु के बहते समय किसी पर धूल फेंकता है, वह धूल उस दुसरे मनुष्य पर न पड़ेगी, किन्तु फेंकने वाले को ही गंदा करेगी। ऐ बेटे ! जो मन, वचन और कर्म से किसका Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८ ) हानि पहुँचाना चाहता है और उस मनुष्य में हानि पहुँचाने का संस्कार नहीं है, तो उसका भाव उलटकर उसी की ओर जायगा । और उसके अन्त करने में समायेगा, क्योंकि उसके रहने के लिए और कही ठौर ठिकाना नहीं है।" " ___यह कहकर बुद्धदेव चुप होगये। ब्राह्मण पुत्र की अवस्था बदल गई। वह धाड़ें मारकर रोता हुआ "त्राहिमाम् ! त्राहिमाम् !" कहता हुआ उनके चरणो पर गिर गया। उन्होंने उसे दयापूर्वक अंग से लगा लिया। और दूसरे दिन इसने प्रार्थना करके बुद्ध धर्म और संघ की शरण ली। (५) जब वर्द्धमान भगवान घरसे निकल कर बारह मास के तप में मग्न थे, दो चार जैनमत के विरोधी आये और उन्हें पाखंडी समझकर उनके दोनों कानों में लोहेकी कीलें ठोक दी, भगवान चुपचाप समाधिस्थ होकर बैठ रहे। विरोधी तो यह अनर्थ करके चले गये । दो चार श्रावक आये। उनकी दशा देखकर इन्हें दुःख के साथ क्रोध हुआ.। धीरे २ कीलोंको कान से निकाला । कानों से इतना रक्त वहा कि लश लुहान होगये और पृथिवी पर रक्त पुत गया । इन श्रावकोंने भगवानसे आज्ञा मांगी कि, "हम ऐसे अपराधी पुरुषों की ताड़ना किये बिना न रहेंगे। जिन्होंने आपको ऐसा कष्ट पहुंचाया है हम उनको कदापि जीवित न छोड़ेंगे ।" भगवान् ने नमुता पूर्वक उन्हें उत्तर दिया कि “हे श्रावको ! मैं किसी प्राणीको दुःख देने नह! Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६ ) प्राया, किन्तु सुख पहुंचाने आया हूं। हे भको । मेरा कर्तव्य विंधाने का नहीं केवल चुडाने का है। मै तुमको ऐसी आशा फभी न दूंगा और यदि तुम भूलकर ऐसा करोगे तो मैं समझूगा कि तुम श्रावक धर्म से पतित हो गए!" बह श्रावक भगवान के वचन सुनकर दंग रह गए। भगवान ने उनसे कहा-“हे श्रावको! यदि कोई पागल तुम्हारे साथ अनुचित व्यवहार करे ? तो तुम उससे क्या बदला लोगे ? क्या तुम भीअनुचित व्यवहारक्रोगे, वह निवुद्धिपागल है, उसमें समझ नहीं है-तुममें समझवझ है। तुम क्षमा करो। “ऐ जैनियो ! जिन धर्म यह सिखाना है कि तुम वैर भाव का परित्याग करके इन्द्रियदमन करो! मनका शमन हो जाय ! इन्हें जीतलो और जब तुम इनको जीत लोगे तो सच्चे जैनी होगे । हे भाइयो ! निःसन्देह तुमने शत्रुओं पर विजय पाने के लिये मनुष्य जन्म धारण किया है। तुम्हारे शत्रु काम, क्रोध, लोभ, मोह और श्राहकार हैं । यदि तुमको जीतने का विचार है, तो इनको जीतो । पागलो और अनसमझ प्राणियों के पीछे क्यों पड़े हो ? इनकी ओर से उदासीनता कात ग्रहण करो।" भगवान यह कह कर चुप हो रहे । श्रावको ने उनके उपचार और विनय किये । यह क्षमा है और यह उत्तम क्षमा है. यह पपा श्वेताम्बर जैनग्रन्थ के अनुमार है, दिगम्बर शानो में ना वईना म्वामी का चरित्र है, इसमें यह बात नहीं मिलती है। Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३० ) 'जो तो काटा बोये, ताहि वोय तू फूल । सोक फूल के फूल हैं, बाको है निशूल । वनमें सागे भाग जप, भागे पशु ले पाए। तैसे मोष से तन तने , बुद्धि विवेक सत्र ज्ञान ॥१॥ तनका नगर सुहावना, दया धर्म का देशा। आग लगी जर मर गया, शीतलता नही लेश ॥२॥ कोष अग्नि हदय परी, भस्म भई सप देह । क्या सोने तू धर्म वहा, वह तो होगया सेह ॥३॥ क्रोष पाप को मत है, और पाप सब तुच्छ । बिना द्वेष और ईर्पा , इसके अङ्ग लव कुच्छ । बैरी औरन के तई , क्षेय जान और प्राण । । निनघातक क्रोधी वना,सो मूरख श्रमजान ॥५॥ भूगल से नहीं उरमिये, ज्ञानी से नही बैर। शतभाव नित कीनिये, इस दुनिया की सैर ६॥ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१ ) [-] मार्दव ! मार्दव जहां तक मैं समझता हूँ प्राकृत भाषा का शब्द है। यह संस्कृत शब्द 'मृदु' अथवा 'मद' से निकला है, जिसका रूढ़ि अर्थ मिलना है। मृदुलभाव-कोमलभाव-और नर्मस्वभाव को मार्दव कहते हैं। ____ मार्दव मानकयाय का उपशम है। जबतक मनके अन्दर मानका संस्कार किञ्चित् मात्र भी है, तवतक उसके लिये __ ससार में कुशल नहीं है। अहंकारी जीव माता-पिता, देव, गुरु और आचार्य से भी यह इच्छा रखते है कि उनका सम्मान किया जाय । आये थे सरसे अहकार उतारने के लिये और उसे जिनके सामने मस्तक नवाना है, और जिनकी शरणागत होकर अहंकार शमन और मान मर्दन करना है, उन्हींके सामने अहंकारी वनकर अनुचित करतव कर बैठते __ है ! इस भूल का कहीं ठिकाना भी हैं, जैनधर्म में इसको मान कपाय बोलते हैं। यह जड़ है संसार के दुःखों की:' यह मन मता है-गुरु मता नहीं है-ऐसे भाव को मन का मद __ कहते हैं । मार्दव का तात्पर्य नम्रभाव, और विनय सिखाना है। जिसमें मार्दवभाव नहीं होता, वह अपने को ऊँचा और दसरों को नीचां समझता है और अहंकार के नशे में घर Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२ ) रहता है। मद (अहंकार) लाखों तरह का है । राजमद, धनमद, विद्यामद, कुलमद, जातिमद, धर्ममद, यौवनमद, देहमद देशमत्र: वाणीमद, विचारमद- इत्यादि इत्यादि । इनमें से जवतक एकनी रहेगा, तबतक मनुष्य और किसी को अपने समान न समझेगा और उसमें दया न श्रायगी । मनुष्य किसी वाद का घमण्ड करे ? यहां जा है वह नाशवान है ! नाशवान पदार्थ पर इतराना विचारशील पुरुषों का काम नहीं है। संसार में जिसे देखिये वही किसी न किसी घमंड में रहता है । यह बहुत बड़ा दोष है । और दोषतो दवसी जाते हैं और दवे रहते हैं, यह जब देखो उभरा ही रहता है । इसकी गति अति सूक्ष्म है । कभी २ इसका पताभी पाना महा कटिन है और जिसके हृदय में यह वसंता है उसकी दृष्टि प्रायः अवगुण ही पर पड़ती है - दूसरों के गुण पर नहीं जाती । और यह संसार में दोष दृष्टि ही की कमाई में लगा रहता है और नानाप्रकार के दुःख भोगता है। कबीरजी ला० कहते हैं: 1 "मीठो बानी वोलिये, हम् आनिषे नाहि । तेश प्रीतम तुझमें, वेडी भी तुझ माहि ॥ J जिसमें मार्दव का गुण नहीं है । वह अपना सर्वस्त्र नाश कर देता है और फिर भी घमंड को नहीं छोड़ता । हानि पर हानि होती रहती है । तिसपर भी इसकी श्राँख नहीं खुलती । धोर देढ़े रास्ते में पड़ा हुआ, यह सीधे रास्ते पर नहीं श्राता । J Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३ ) यह ऐसा हार्दिक रोग है जिसको असाध्य कहते हैं । इसकी औषधि केवल मार्दव-नम्रभाव है और इस रोग का असा हुना मनुष्य परिणाम को न समझता हुआ इसके दूर करने का उपाय तक कम सोचता है। अथवा विल्कुल नहीं सोचना और सारी श्रायु रोगी रहकर विताता है । यह क्या है ? उदाहरणों से समझ में श्रावेगा:__ (१) कृष्ण जी धर्मराज युधिष्ठिर की ओरसे दूत बन कर दुर्योधन की सभा में पहुँचे।और उससे कहा:- भाई धर्मराज कहते हैं-तू रोज अपने पास रख,इम को केवल एक गॉवदेदे। हम उसी से अपना और अपने भाईयों का पालन पोषण करेंगे। दुर्योधन ने उत्तर दिया- 'एक गॉव बहुत होता है । मैं युधिघर को सुई के नोक के बराबर भी पृथ्वी नहीं दूंगा।" कृष्ण ने समझाया-"फिर युद्ध होगा और दोनों कुल नाश हो जायेंगे। इस घमण्ड और सब अकड़ से कोई भलाई न होगी और जब मरमरा गये तो फिर राज कौन करेगा?" दुर्योधन हट पर तुला हुआ था, बोला-"चाहे संसार इधर से उधर पलट जाये । मैं न युधिष्ठर की सुनूगा और न तुम्हारी यात मानगा।" कृष्ण ने कहा-"फिर तू लड़ाई मोल ले रहा हैइसका परिणाम नाश है । कौरव और पाण्डव दोनों ही इस लड़ाई से मिट्टी में मिल जायगे।" उसने कहा-चाहे कुछ भी हो। मैं अपनी हट न छोडूगा!" Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४ ) लड़ाई हुई-महाभारत उना-और उसका जो, अन्तिम परिणाम हुश्रा उसे सब जानते हैं। मार्दव गुण की कमी से ऐसा हुआ! (२)अभी महाभारत युद्ध का प्रारम्भ नहीं हुआ था। कृष्ण, कौरव और पाण्डव दोनों के सम्बन्धी थे और दोनों व्यवहार अनुसार उन से सहायता लेने के लिये पहुँचे । दुर्योधन पहले पहुंचा। वह खाट पर पड़े हुयं सो रहे थे। जगाना उचित नहीं समझा । दुर्योधन गया था सहायता मांगने परन्तु राजमंद के नशे में चूर होने के कारण सिराहने बैठा । अर्जुन देर से पहुँचा । इस में भक्ति भाव था-पांयते बैठा। कृष्ण की आँख खुली । पहले अर्जुन को देखा-पूछा- “कैसे आये ?" उस ने उत्तर दिया, "अब संग्राम की उन गई । सहायता मांगने आया हूँ।” कृष्ण बोले, “बहुत अच्छा, जो कुछ हो सकेगा, सहायता दूंगा।" इतने में घमंडी दुर्योधन घोल उठा, "मैं इससे पहले आया हूँ। मेरा अधिकार विशेष है।' कृष्ण द्विधा में पड़ गये। दोनों से कहा, "एक ओर मैं अकेला हूँ और प्रतिज्ञा करता हूँ कि इस सम्बन्धियों की लड़ाई में हथियार न उठाऊंगा। और दूसरी ओर मेरी सेना और सेनापति इत्यादि हैं, जो बड़े सूरमा और योद्धा हैं । तुम दोनों निर्णय कर लो, किस को चाहते हो?" मदान्ध दुर्योधन ने कहा, "मैं सेना और सेनापति को चाहता, हूँ।" अर्जुन ने विनती की, “मैं केवल आप की आवश्यक्ता रखता हूँ।"कृष्ण Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५ ) वोले, "मुझ अकेले को लेकर तू क्या करेगा, मै तो लडूगा नहीं।" यहाँ पहले से ही इसका उत्तर मौजूद था । कहा, "आप मेरे रथवान बने रहें और हम को उचित सम्मति देते रहें । बस इतना ही चाहिर ।' कृष्ण ने स्वीकार किया "एवमऽस्तु ।" और लड़ाई हुई । पांडव जीते और कौरव मारे गए। “यत्र कृष्णम् तत्र जयम् ।' (३) रावण को युद्धमद था । वह सीता को हर लाया पनियों और उसकी रानी मन्दोदरी ने लाख समझाया कि घमण्ड को छोड़ कर सीता को लौटा दो । उसने उनकी नहीं सुनी। परिणाम यह हुत्रा. “एक लाख पूत सवा लाख नाती, तो रावण के दिया न वाती।" (४) में लाहोर में "मार्तण्ड" नामक मासिक पत्र का सम्पादक था। राधास्वामी मत में प्रवेश करने की वजह से आर्यसमाज का दल मेरे पीछे पड़ गया और मेरी लेखलो से एक अनुचित लेख निकल गया। लोग कितना ही मुझे समनाते रहे, “यह लेख न लिखो" । मैं मढ में चूर था। मित्रों की बात नहीं मानी । मुकदमा चलाया गया । जिस मे मुझे बहुत कष्ट भोगना पड़ा और अन्त में लज्जित हो कर क्षमापत्र देकर सुलह कर ली । यदि मुझमे मार्दव भाव का उत्ते जन होता तो मुझे यह कष्ट और यह लज्जा न उटानी पड़ती। Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धमएड का सर हमेशा नीचा ! जो इसके वश में आयेगा, वह अवश्य दुःख भोगेगा। खोद खाद धरती सहे, काट कुट बनगय । कुटिल वचन साधू सहे, और से महा न जाय ॥ दोहा.-मान हना हनुमान सोई, गम का साचा चीर । चजग्गी वनधान होय, दुख नुख सहे शरीर ॥१॥ धन त्यागो तो क्या भया, मान तजा नही जाय। मान ही यम का दूत है, मान ही सब को स्वाय ॥२॥ गुरुपद शीश झुकाय कर, त्याग दिया अभिमांग सहज ही रज गवन मरा, चिना धनुप बिष वान ॥३॥ नही मागू मैं मरनमद, नहीं माग सन्मान । सतगुरु पद कर दंडवत, मागू नाम का दान ॥४॥ भम को अपने मारले, ते सावा हनुमान । पायेंगा गुरु की दया, एक दिन पद नर्वाण ॥५॥ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३ ) [६] आर्जव आर्जव सग्लभाव को योलते है । सरलभावदी सहजभाव है। यह मनुप्यमात्र का भूपण है। जिसमें सरलता और सहजता नही है, वह दिखावट बनावट पर मरता रहता है और जिसमे यह है उसे किसी भूषण की अथवा वनावटी शृङ्गार की आवश्यक्ता नहीं है। जो जैसा है अन्त में वैसा प्रगट होकर रहता है। मनुष्य लाखरूप बनाये लाख बहुरूप धारण करसंभव है कुछ दिन यह चाल उसकी चल जाय । परन्तु अन्तमे भन्डा फूट ही जाता है। "काल समय जिमि रावण राह। उधरै अन्त न हुइ है निबाह । ___ सहजवृत्ति सब में उत्तम है। इससे उतर कर साहित्यस्वाध्याय है। इससे बहुत नीचा देशाटन है। परन्तु सहजवृत्ति क्या है ? इसका समझना कठिन है। इन तीनों से ही तजुर्वे बढते है और मनुष्य में समझबूझ आती जाती है और यह समझ बूझ समय पर उसे सरलभाव वाला बना देती है। जो जैसा हो वैसा होकर दिखाना किसी को नहीं भाता। सब वनावट और दिखावट में पड़े रहते हैं । यह बनावट अधिक समय तक नहीं चलतीऔर अन्तमें ममुष्य आप उससे Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उकता जाता है, फिर भी इसका त्याग नहीं होता और न कोई उसे तजना चाहता और न तजता है। __एक मनुष्य है जिसमें प्रोगुण भरे हुए हैं। घर में ऊधम मचाता है, धमाचौकड़ी करता है। स्त्री, पुत्र, सभी उसके नाम को रोते है । परन्तु जब कोई अतिथि, अन्य पुरुष या पाहुना उसके घर आजाता है तो वह अपने आप को सभ्य श्रोर प्रतिष्ठितरूप मे प्रगट करता है । यह कपट और छल तथा धोका है । ससार में सब जगह ऐसा ही व्यवहार हो रहा है। जो जैसा है वैसा नहीं दिखता । जो जैसा है वैसा नहीं करता और उसको वैसी ही वृत्ति बनती जारही है, सहजावृत्ति अथवा आर्जवभाव उसमे नहीं आता है और कौन जाने उसकी कर जाकर शुद्धि होगी। तीर्थदरों ने इस प्रार्जवभाव पर घड़ा ज़ोर दिया है। ऋषभदेव जी से लेकर बर्द्धमान स्वामी तक सव के सब नग्नावस्था में रहते थे । उनको न किसी का भय था, न लज्जा थी न मन में हिचकिचाव था। यही तीन अर्थात् भय, लज्जा और हिचकिचाव पप के रूप है, और पापी मनुष्य के लक्षण कहे जाते हैं । यह तीर्थंकर आत्मवी पुरुष थे। जिन्हो ने अजीव संसर्ग का सर्वथा त्याग कर दिया था। आज संसारी मनुष्य पाखण्डी होकर इस अवस्था से घृणा करता है। किन्तु आगे चल कर लोग समझ जायँगे कि बिना आर्जव भाव के सच्चा सुख नहीं प्राप्त होता। Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३६ ) मैं दूसरों की क्या कहे ! अव मेरी दशा ऐसी रहती है। नंग-धडंग रहता हूँ। हां, समाज की रीति के अनुसार वस्त्र धारण कर लेता हूँ, क्योंकि अभीतक पूरा श्रार्जव भाव नहीं पाया है । फिर भी इस सादगी और सरलता में मुझे सुख रहता है। और लोगों को सुनकर आश्चर्य होगा कि जबसे मैं कुछ २ इसकी ओर ध्यान देने लगा है, मुझे पशु-पक्षी इत्यादि ले श्राप शिक्षा मिलने लग गई है। राधा स्वामीधाम के सन् १४२६ के भंडारा में वायू बांके बिहारीलालजी, मैनेजर इलाहाबाद बैंक, इटावा अपनी नौ महीने की तडकीको धाम में लाये थे। वह लगभग एक महीने तक रहे । समय समय पर प्रतिदिन वह लड़की को मेरे आसन के पास लाकर लिटा देते थे और उस लडकी को देखकर जो भाव मेरे मन में उत्पन्न होते उसी के अनुसार मेरा भापण हुआ करता था। में सरल स्वभाव का मनुष्य हूँ। वह लडकी मी ऐसी ही थी। मैं उसके भाव को भांप लेता था। वह गेरे समझ जाती थी। अब में जो कुछ पढ़ लिख चुका है उसको भुलाना और भूलना चाहता हूँ । सरलता और श्रार्जव संयुक्त हो जाऊँ, इसी को ध्यान रहता है। हिन्दू निन्दा करते है कि जैनी नगी गृर्तिये पूजते है। परंतु वह भूल आते है कि उनके यहां शिव भगवान दिगम्बर कहलाते हैं। यावत कोटि के मनुष्य कब हिन्दुओं में कपडे Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४० ), पहनते हैं ? स्वामी दत्तात्रय जी कौनसा वस्त्र धारण करते थे, सनक सनन्दन सनातन और सनत् कुमार ने कव कपड़े लत्ते पहने थे ? अन्तिम अवस्था आनेपर मनुष्य प्राप दिगम्बर जाति को प्राप्त होने लगता है । यह कुदरती और नेचरल बात है। और इस प्रकार रहने वाले मनुष्यों का अंतर वाहिर एक तरह का होता है और इसीकी उत्तमता है। नंगे मनुष्य को देखकर पशु उतने भयभीत नहीं होते, जितने वह कपड़े पहने हुए से चौकन्ना होते है। ____ मैं यह नहीं कहता कि कोई कपड़े न पहने । पहने, क्योंकि उसके शरीर, समाज और लोक लाज का अभ्यास है। अनुभव सम्पन्न होने पर उसमें श्राप ऐसी वृति स्वाभाविक रीति से आने लगेगी। नहों महताज जेवर का जिसे खूवी खुदा ने दी । कि जैसे खुशनमा लगता है देखो चाद विन गहने । श्रार्जवपना नंगे रहने पर नहीं है। इस के कितने ही अङ्ग हैं। कहने का तात्पर्य केवल इतना ही है कि वह जैसो है वैसा रहे। कहता है करता नहीं, पथ की पोर न श्राय । कहे कबीर सो स्वान गति, वाधा यमपुर जाय । जिस में आर्जवपना न होगा, उस में सहजावृत्ति कभी नहीं पायेगी और न वह सरल स्वभाव वाला बनेगा । इस Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४१ ) बात की आवश्यकता है कि मनुष्य का जीवन सादा और उस के भाव ऊँचे हो । ( Simple living and high thinking) यह कहने का अभिप्राय है । संसार दिन प्रति दिन बनावटी होता जा रहा है और दुः की वृद्धि हो रही है । ऐसा तो होना ही चाहिए। श्राश्चर्य तो उस समय होता, जब ऐसा न होता । नीच से नीच कुल के मनुष्य को देखो, सव मान थपमान के बन्धन में फँस रहे है । सब 'इज्जत' चाहते हे - दिखावट और बनावट पर मरते है । और उन के बन्धन बढ़ते हो जाते हैं, और घटने पर नहीं आते। श्रावश्यकतायें बढ रही हैं, जो आवश्यक नहीं है श्रार जीव कठपुतली जैसा श्रजीव वना हुआ घूम फिर रहा है । धर्म के पालन के लिए श्रार्जवपना मुख्य है। जैनधर्म का तत्व केवल इतना ही है । श्रार्जवभाव के उदाहरण देखिए: hunghting + ( १ ) एक राजा महल के कोटे पर मखुमल के तोशक पर लेटा हुआ करवटें बदल रहा है । उसे नींद नही आती है । महल के सामने राख का ढेर पड़ा हुआ है । उस पर एक नग्न साधु पड़ा हुआ गहरी नींद में खुर्राटे ले रहा है । राजा की श्राचर्य हुआ । प्रातःकाल उसे बुला भेजा - पूछा “क्या कारण है कि मुझे तो नींद नहीं आती और तू सुख चैन से साता है ।" साधु ने उत्तर दिया- "तू बन्धन में है और मैं बन्धन मुक्त / Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४२ ) हूं । बन्धनवाले को तो दुःख होता ही है । मुक्त को क्यों दुःख होने लगा ?" राजा-मैं कैसे बन्धन में हूं और तू कैसे मुक्त है ?" साधु-तेरे पास माया (अजीवपने का सामान) वन है। मेरे पास कुछ भी नहीं है । इस लिये बद्ध है और मैं मुक्त हूं।" राजा-"क्या मैं भी राज काज छोड़ कर तेरे जैसा साधु हो जाऊँ? ' साधु-"मैं यह नहीं कहता और न इस की श्रावश्यकता है। मन से त्याग कर-आर्जव धर्म का पालन कर और तुझे भी सुख मिलने लगेगा। भरत चक्रवर्ती राज काज को संभालते हुये भी परम भैरागी थे और सुखी थे।" राजा ने समझा यह कंगाल है, इसलिए डीग मार रहा है। उसने उसके लिए एक महल खाली करा दिया नौकर चाफर दिये-तामम सामग्री इकट्ठा कर दी । साधु उसमें रहने लगा। कई दिन बीत गए । राजा देखने आया । साधु वैसाही प्रसन्नचित्तथा, जैसा पहिले था। राजाने साधु से कहा-"महल में कोई और प्राकार रहना चाहता है ।" साधु उठ खड़ा हुआ और वैसे ही सादगी से हंसता हुआ अपनी राह चला गया। राजा को फिर नाश्चर्य हुआ। इसने समझा था कि महन के त्याग से इसे दुःख होगा, किन्तु लाधु में दुःख कैसा ? वह तो किसी औरही प्रकार का मजुज्य था। Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४३ ) किसी दिन साधु वृक्ष के नीचे बैठा हुआ था। राजा की सवारी निकली। यह सैर को जा रहा था। इस पर दृष्टि गई। राजा ने कहा "चलो तुम को सैर करा लायें। साधु ने उत्तर दिया-"मैं नहीं चल सकता । इस वृक्ष का बन्धन भारी है। इसने मुझे बांध रक्खा है।" राजा-"क्या तुम मूर्ख हो गए हो, जो वृक्ष को बन्धन का कारण समझते हो । वृक्ष तो स्थावर पदार्थ है । यह कैसे बाँध सकता है? साधु-"तू मुझ से महामूर्ख है, जो राज काज धन दौलत को बन्धन का कारण मान रहा है। यह भी तो जड़ स्थावर हैं। तुझे इन्हो ने कैसे बॉध रक्खा है ?" राजा की समझ में बात श्रागई। हाथी से उतरा, पॉवपर गिरा, क्षमा माँगी और उसका शिष्य होगया। साधु ने जीय अजीव का सम्बन्ध समझा दिया । इसने अपनी ज़रूरतें कम करदी। बार्जदभाव को ग्रहण किया और राजा होते हुए भी फिर उसे नांद का आनन्द मिलने लगा। (२) विक्रमादित्य उज्जैन का महाराजा वडा प्रतापी हुमा है। यहाँ तक कि हिन्दुस्तान के बाहर दृसरे देशों रोम इत्यादि में उसके दूत रहते थे। यह बड़ा सरल स्वभाव कामनुष्यथा। यहाँ तक कि पृथ्वी पर चटाई बिछाकर सोता था और अपने हाथ से विपरा नदी से पानी भर ताया करता था अपने निज काम के लिये सेवन नहीं रख छोडे थे। Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 83 ) ( ३ ) हैदराबाद के दानवीर महाराजा चन्दूलाल अभी वर्तमान काल में हुये हैं, वह और उन की धर्मपत्नी दोनों बड़े सादा मिजाज़ थे । अभी उन के देखने वाले संभवतः जीते होंगे। यह मी पृथ्वी पर ही सोते थे और लाखों का दान किया करते थे । यह समय और प्रकार का है । मनुष्य अपने आप को विशेष संभ्य बनाता और समझता जा रहा है । और उस के जीवन की ज़रूरतें दिन प्रति दिन बढ़ती जा रही है । यह समय का प्रभाव है और साथ ही वह दुःखी भी विशेषतर रहता है । श्रात्मदृष्टि से सरल स्वभाव और सादगी का जीवन महा उपयोगी और सुख का कारण होता है। हम जो कुछ कह रहे हैं, इसी श्रात्मभाव को लेकर कह रहे हैं । जो श्रात्मोन्नति f 6 1 1 करने वाला इस का साधन उठायेगा । दाहं.- सहजचाल है सन्त की, सरल स्वभाव स्नेह | नहीं ममत्व कुल देह का नही है प्यारा गेह ॥ १ महज सहज की शेति है, सहज सहजव्यौहार सहज पके मो मीठ हो, यह जाने ससार ॥ भरल रोति व्यौहार में, सहज ही प्रगटे ज्ञान । सरल सहज का नाम हैं, कठिन है खींचातान ॥३॥ जागन में सोवन करे, सोवन में रहे जाग | इस विधि सरल स्वभाव हो, तत्र यावे वैराग ॥४॥ लहज सरलाता मन बसे, त परमपद पाय साधू ऐसा चाहिये, सरलवृत्ति न भलाय ॥2 - करेगा वह भी अधिक लाभ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४५ ) [१०] सत्य 'सत' सच को कहते हैं। 'सत' होने का नाम है । यह संस्कृत धातु 'अल' (होने ) से निकला है । जो है जो हो वह सत्य है । और जो जैसा हो वह वैसा ही प्रकट किया जाए, यह सत्य शब्द का अर्थ है। जैनधर्म यथार्थ धर्म है । इसने अभय होकर सचाई का उपदेश दिया है। किसी प्रकार का लगाव लपेट धर्म के विषय में नहीं रक्या पोर न बनावट से काम लिया। जैनधर्म कहना है कि ईश्वर उसे करते है जिसमें ऐश्वर्य हो । यह ऐश्वर्थ किमी ऐसे व्यक्ति में नही थारोपन किया जा सक्ता, जिसे यूही लोगों ने विना समझे वृझे जगत् का रचने वाला मान रक्खा है। आज नक कोई मनुष्य अपनी बुद्धिमानी या युत्तिसे सिद्ध मी नहीं कर सका, किन्तु लोकलाज और कल्पिन परम्परा के भय से सच्ची वान न कहते है, न चाहने का लाहस करते है और न कर सक्ते है । एव हटधर्मी से जैनियों को नास्तिक कहते हैं। जो सच्चे और परम आस्तिक है । जैनी केवल नीर्थंकरों को ईश्वर मानते है, वह उन के अमयभाषण का प्रमाण है। जो यथार्थ है वही सत्य है और यही सत्यधर्म का अटल लनण है। . Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४६ ) 9 इस सत्य के ग्रहण करने से मनुष्य को अभयपद की प्राप्ति होती है । इस के ग्रहण किये बिना अभय होना दुर्लभ है । सचाई से सरलता, मृदुता और सहजना होती है । सत्य अथवा मैं खीचतान करना पड़ता है और वह फिर भी झूठ सिद्ध नही होता । मिथ्या कपोल कलित और झूठ बोलते रहने से मनुष्य की सरलता खो जाती है वह हठधर्मी और पक्षपाती वन जाता है । वस्तु यथार्थ तो है नहीं । इस भाव का अङ्कुर उल के मन में जमा रहता है, जो कभी दूर नहीं होता । श्रौर लाख जतन करने पर भी उस में दृढ़ता नहीं श्राती । ! यह कारण है कि सत्य के धारण करने वाले चिड़चिड़े क्रोधी और अभिमानी हो जाते हैं । और अनर्थ करने पर तुल जाते हैं । दृष्टि को पसार कर देखो। जिन्हें जगत् ईश्वरवादी कहता है और जो हठ से कल्पित ईश्वर के पद का ग्रहण करते है, प्रायः वही 'खूनखराबा और मारधाड़ करते रहते हैं और जो उनका मतानुयायी नहीं है वह उससे घृणा करते और सताते हैं। यह काम तो साधारण नास्तिक भी नहीं करता, क्योंकि जिस का इसे निश्चय नहीं है अथवा वह समझ नहींरखता उसे न ग्रहण करता और न मानता है इस श्रंग में वह कम से कम सच्चा है और उस में वह हम नहीं श्राती जो कल्पित ईश्वरवादियों में पाई जाती है । जैनी नास्तिक, सत्यवादी और सत्यवाही हैं । वह ईश्वरपद को मानते है । परन्तु उनके यहां उस ईश्वर की मानता है • Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ } ( ४७ ) 'जी सत्र नीथों या जीवन की श्रेणियों को पार करके सिट जिन पर पहुंच कर सर्वन और पूर्ण हो गया है। यह मतभेद है जो जैनियों और संसारी मन वालों में पाया जाता है। जैनी मन वाले हैं, किन्तु वह मतवाले ( मदवाले ) ओर उन्मच नहीं है। फीर साहब कहते हैं: साधू ऐसा चाहिये साचो कहे पनाथ । ma क टूटे चाएं जुडे, चिन पड़े भ्रम म जाय । कूटको पांच नदीं होते । लाख कोई उसकी पुष्टि करे, करता रहे। वह कभी खड़ा नही हो सका । यह सब कोई जानता है कि सत्य आधार है । यदि सत्य का आधार न हा तो भूट नहीं ठहर सक्ता । सत्ग के लिए लगाव लपेट, युक्ति, प्रामण और किसी की सहायता आवश्यक नहीं है। वह सर्वाधार होता हुआ निराधार है । वह स्वयम् आप अपना आधार है । वह अपने प्रकारा में श्राप स्वप्रकाश रहता है। सांच को आंच नहीं ! सांच दम्भ, कपट और पाखंड नहीं। वह तो सदा खच है । भूँठको इनका सहारा हूँढना पड़ता है । और वह निश्चल होता है। जैनी नेल के खौलते हुए कढ़ाहों में मम किये गये -उनके साथ प्रत्याचार किया गया ! किन्तु क्या हुआ ? उनका सिद्धान्त तो जैसा हैं पैसा ही चला रहा है । इन अत्याचार करने वालों में ही से ऐसे लोग बहुधा पेसे निकलते रहते हैं जो सशय और विपर्व के वशीभूत रहते हैं श्रीर रातदिन बक २ झ २ करते Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४ ) हुए वादविवाद में पड़े रहते हैं और उनके निश्चय को दृढता प्राप्त नहीं होती! जहां सत्य नहीं होता. वहां ही रागद्वेष, ऊंचा नीचा और परस्पर विरोध होता है। इसी का नाम संसार है । और अब जीवका सम्बन्ध अजीव के साथ गहरा होता है तब ही इनकी सुमती है। नहीं तो कोई क्या ऐसा करने लगा था! जिनका यह कथन है कि व्यौहार विना झूठ के नहीं चलता वह भूलमें पड़े हुए हैं। सच्ची बात यह है कि व्यौहार भी सच के विना नहीं चलता। यह समझलो कि कोई वस्तु है तब तो उसका व्यौहार किया जायगा । यह 'है पन' ही सत्य है, जिस पर व्यौहार निर्भर है। ___सत्य जिसके हृदय में गड़ जाता है, फिर वह उखड़ नही सस्ता । शरीर चाहे रहे वा न रहे इसका भी विचार जाता रहता है और मनुष्य सत्य के लिए सब कुछ खोने को उद्यत होजाता है। “सत्य को पाने दो! फिर लोभ, मोह, अहङ्कार श्रादि इस तरह भाग निकलते हैं जैसे 'गधे के सिर से सींग ! एक सत्य के ग्रहण कर लेने से उस के अनुयायी गुम आप प्राजाते है। और झूठ चला जाता है। सत्यमेव जयति सत्य की जय होती है। कभी २ मनुष्य सत्य के समझाने बझाने के अभिप्राय से रोचक और भयानक Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 8 ) चाते भी कह देता है। जो सर्वाङ्ग से झठे नहीं होते, उन में सार रहता है। और यह सार सच होता है। ' सत्य ही सच्चा तप है। मनुष्य कुछ न करे। सच बोलने का अभ्यास करले । फिर वह तपस्वी बन जायगा और जो उसकी कामना है, सब पूर्ण होकर रहेगी । कबीर जी का कथन है: साँच वगेवर तप नहीं, मठ वशेबर पाप लाके हृदय साच है ताके हृदय श्राप ।। सत्यभाव काचौगना पहर 'कवीरा' नाच । तन मन तापर वारियों को कोई बोलेसाच ।। उदाहरणों पर नज़र डालिए। (१) झूठ में 'दुःख और सच में सुख है। दो स्त्री पुरुष किसी घर में रहते थे। दोनों सच्चे थे और परस्पर प्रेम पालते हुए खुशी थे। सरल स्वभाव वाले । एक दूसरे से कोई बात छुपाता नहीं था। पडोसियों ने चाहा कि उनमें अनवन करदें । वह परिश्रम करके भी ऐसा नहीं कर सके। और न उनके सुखमें कोई बाधा डाल सके। अन्त में लजित होकर उन्होंने एक टगनी स्त्री से कहा कि यदि तू इनमें अनवन करादे तो हम तुझे पचास रुपये देगे। उसने स्वीकार किया श्राप तो स्त्री के पीछे पडी और एक पुरुष को उसके पति के पीछे लगाया । और यह दोनों के बनावटी मित्र बने। एक दिन कुटनी ने स्त्री से कहा-तेरे पुरुष का शरीर लून Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५० ) (नमक ) से बना है।" उसने नहीं माना-हॅसती रही । दिन प्रति दिन कहते सुनते रहने से उसके मनमें पाया कि एक दिन युरुप को देह को चाट कर निश्चय कर लेना चाहिये कि अथवा यह स्त्री सच कहती है बा झूठ कहती है। ___ उधर मित्र पुरुष ने पति से कहना श्रारम्भ किया कि तुम्हारी स्त्री डाइन है। रात को तुम्हारा रक्त चूसती है। वह सो विश्वास नहीं करता था हॅल कर टाल देता था। झूठ को कौन ग्रहण करे। एक दिन रात के समय सोते वक्त स्त्रीने पुत्र के शरीर को चाहा । वह जाग उठा। और यह कहते हुए भोगा कि "तू डाइन है और उसके पास जाने से रुक गया । इस तरह झूठ का परिणाम दोना के लिए दुःख का कारण हुश्रा। उनकी दशा शोचनीय धी। अन्तमें एक मित्र ने भंडा फोड़ दिया । तय दोनो मिले। एक ने दूसरे से क्षमा माँगी और फिर यह व्रत धारण किया कि "शिली की झूठी वात पर विश्वास न करेंगे।" और तब से वह सुखी रहने लगे। (२)बच बोलना ही सत्य ग्रहण करना नहीं है, किन्तु सत्य को रूप बन जाना सत्य है । द्रोणाचार्य कौरवों के गुरु थे । जब वह उनके शिक्षक बनाये गए, लवको संस्कृत में यह पाठ पढ़ाया-"सत्यम् यात्-प्रेमयात् । मानयात् सत्यम् Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५१ ) अप्रिय ।" अर्थात् सच बोली और प्यारा सच बालो । जो संग , प्यारा नहीं है, यह न बोलो। दूसरे दिन सप राजकुमारों ने इसे यादकर लिया युधिष्ठिर से पूछा गया, उन्हों ने कहा-"मुझे याद नहीं हुआ। और,, गजकुमार तानय २ लोक याद करने लगे। युधिष्टिर ने नगे सवय लेने से इनकार कर दिया। दो सप्ताह बीत गए । द्रोणाचार्य ने पहा-"तुझ में स्मरणशक्ति नहीं है और तू इन राज. कुमारों से कम समझ है। इन्हों ने तो एक दिन में घोर लिया गौर तू इन गजकुमारों से पीछे रह गया।" युधिष्ठिर ने उत्तर दिया-"भगवन् ! लोक तो मुझे भी याद हो गया है, किन्तु जब तक में सत्य और प्रिय सत्य और न बोलने लगू तब तक उसले लाभप्या है ? मैं प्रिय सत्य बोलने का अभ्यास कर रहा है, जन इसमें पूरा उतरूगा तय श्राप से दूसरा श्लोक लीखंगा।" द्रोणाचार्य की श्रीखें खुली और यह भविष्यवाणी कही कि "गुधिष्टिर आयु पाकर बडा दमात्मा होगा।" शोर अन्त में धर्मराज की पदवी उसने पाई। (३) सत्यकी मूत बन जाश्रो, नव उसका प्रभाय दूसरों पर पड़ेगा। स्वामी रामकृष्ण परमहंस की बात है। वह जन्म सिद्ध पुरुष थे। एक दिन एक स्त्री अपने लड़के को उनके पा स लाई और उलना देने लगी:-"स्वामी जी! यह लड़का गुड़ बहुन खाता है, इससे रोगी रखना है ।मेराक-ना नहीं मानता Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५२ ) श्राप शिक्षा दीजिए कि यह गुड़न खाये।"स्वामी जी ने कहा "भाजले दस दिन बाद इस लड़के को लाना । मैं समझा दूंगा फिर यह गुड़ न खायगा।" वह दसवें दिन उसे लाई। स्वामी जी ने बालक से इतना ही कहा कि "बेटे, अवगुड़न खाना।' उसने उत्तर दिवा -"आप कहते हैं तो मैं श्राजले गुड़ को हाथ तक न लगाऊँगा" स्त्री चकित होकर पूछने लगी कि "यही टार पहले दिन क्यों न कहदी । दस दिन योही अक्षारथ गर स्थामीजी ने हंसकर कहा-माई सुन, पहले मैं आप गुड़ खाया ता था। उस दिन मेरे पास गुड भी रक्ता हना था । द मैं इसे कहता तो यह न मानता । मैंने दश दिन तक गुड़ रहीं खाया। इस लिए यह मेरे वचन को सान गया। दाहे-"कातिक मास करेल ला, चहानम की हार। पच्चाई थी चीन में, अति वडा व्यौहार ॥१॥ कथा पथन को चान है मुनामुनी की बात । गुनबन्ना वाई क्यो बने, बिना गुनी वी गन ॥ २ ॥ क्यस्य र स्व मर गये, क्यनी के व्यौहार । बित करो वह दह गये, उड़े कानी धार ॥६॥ साँचा है तो मात्र इन, साया हो दिवाय । जब तक सादा ना कने, साच काहुर जाय ॥ माचा हृदय विमज तन मुत्त से साची बान। ऐसे को साग क्हो साच गहे तव हाथ ॥शा करनी करे सो निक्ट है, क्यनी क्ये तो दुरा - रहनी रहे तो रूप है, रहने में भरपूर ॥६॥ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५३ ) जीवन रहनी का सुफल, विन करनी नहीं जिव । करनी कर रहनी रहे, वही जीव है शिव ॥७॥ मरत रहे पक्षान में, यह माने सब काय । पाथर को जो गढे, कैसे परगट होय ॥ " साचा वन सत क लस तव साचा दीदार । क्थनी में करतब रहे, तव हो सहज सुधार ॥ 88 सात्र साच सव कोई कहे, साचा मिला न एक । साचा करनी सहित है, धारे चिच विवेक ॥ १० ॥ साच जो मन में धंस गया, खोंजा सत्गुरु ज्ञान । निज स्वरूप का दर्श कर, पाया पद निर्वाण ॥११॥ MAA Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ { ५3 ) [११] शौच शौच संस्कृत शुचि' (शुदि) ले निकला है। इस का अर्थ शृद्धिदी है. और शुद्धि त तात्पर्य विशेष शुद्ध गवना से है। शुद्धि और लद बातों के समान तीन तरह की है। व्योहार की शुद्धि, प्रतिनाधिकद्धि और पारमार्थिक शुद्धि और इन तीनों का परस्पर सम्बन्ध है। न्यौहार और परनार्थ उत्त समय तक सृद्धि नहीं होते जब तक प्रतिभाप में गुद्धि न हो। प्रतिनाय विचार त्यात और भाषको कहते हैं और यह सतसंग स्वाध्याय एवं शिक्षा से प्राप्त होता है। मनुष्य जिल कुल में उत्पन्न होता है, जैसे समाज में रहता है, जैसी संगत होती है और जैसी शिक्षा पाता है अथवा उल ३ ई गिर्द जैसी घटनाएं हुमा करती हैं वैसे ही उसने विचार भी होते हैं। यह बनाई हुई बात है। साथ ही उस माहार भी बहुत कुछ अपना प्रभाव रखता है जो जैसा अन्न खाता है उस का मन सा बनता है। और जब मन जैसान्त गया उस में विचार भी वैले उत्पन्न होते हैं। इस अभिप्राय से जैन धर्म ने खाने पीने के विषय पर भी बहुत कुछ दृष्टि पतली है। जो पयाज़ लहसुन या गन्हें खाता है वह तामसिक और तामसिक बुद्धिवाता होगा । जो मांत मदेरा का श्राहार Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५५ ) करता है वह भयानक और भय प्रगट हरने वाले व्यौहार करेगा । भिरच का विष पानेवाला चिडचिड़ा होगा इत्यादि ऐसे ही न रथन और रहने के घरों का भी बहुत पुत्र प्रभाव मन पर पडता है । यह रूप याने सोचने और are की है और धर्म की पहली सीढ़ी पर चढ़ने के लिए इन पर विचारने और इनके साधन करने की मुख्यता है । शोच धर्म पाचनीय यह है । जब तक हृदय शुद्ध न होगा व शुद्धाचरण शुद्धचारित्र और शुरू आदर्श के प्रहरा कर योग्य न होगा ! बाहरी भी शारीरिक शुद्धि काफी नहीं है । मासिक शुद्धि की बडी उरुरत है । मान्सिक शुद्धि के बिना शरीरिक शुद्धि लाख हो, वह इतनी उपयोगीन सिद्ध होगी । श्राहार, व्योहार, श्राधार इत्यादि को मुक्ति के साथ करना चाहिए । शरीरिक शुद्धि बहुधा बनावटी होती है और वह मनुष्य की गिरावट का कारण बनती है। बगुला उजले परों वाला होता है, परन्तु वद मछली खाता है और हिंसक है। क्या संसार में घगुले भगत बनाना है ? इन से तो यूँ ही नग पडा है । जिस धर्म के लिए तीर्थकरों ने कठिनाइ सही है वह साधारण रीति ने तो प्राप्त नहीं होना ! उस के लिये तप करना पटना है । तघ जाकर वह कहीं हाथ जाता है 1 यदि हृदय शुद्ध नहीं है, तो कोई क्या किसी से उत्तम उप Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५६ ) देश को अहण करेगा? और क्या उस से लाभ उठायेगा? शुद्ध और अच्छे पदार्थ शुद्ध और अच्छे पात्र ही मे रक्खे जाते है । अशुद्ध पात्र में शुद्ध वस्तु कोई कैसे रक्खेगा और कैसे वह उस मे रखा जा सकेगा? हृदय शुद्ध और निर्मल हो तब वह श्राप किसी उत्तम पुरुष के समीपवर्ती होने से उस के भाव को सुख और प्रसन्नतापूर्वक ले सकेगा और वह उस में भली प्रकार प्रतिविम्वित हो अनुभव उत्तेजन करेगा। और शुभ जीवन के बनाने में सफलता होगी। ऐसा न होगा तो फिर उल्टा पांसा पड़ेगा शब्द, स्पर्श, रूप, रल,गन्ध, हर मनुष्य पर अपना प्रभाव डालतेहैं। पृथ्वी, जल अग्नि,वायु, और श्राकांश भी यही काम करते हैं। रोगी शरीर के लिए यह हानिकारक होते हैं और अरोगी शरीर के लिये यह उपयोगी होते हैं शौचवाला मनुष्य श्ररोगी कहलाता है । उस में केवल शुद्ध भावना ही प्रतिविम्बित होगी। अशुद्ध भावना की ओर उसकी दृष्टि तक न पड़ेगी, फिर वह उन के भाव को कैसे ग्रहण करेगा? शौच के लिये सयम्क् आजीविका, सम्यक् आहार और सम्यक आचरण भी आवश्यक हैं । गृहस्थियों के लिये कम से कम इन बातों को स्मरण में रखना चाहिए । नहीं तो शौच का लक्षण उस में न प्रगट होगा। जिस का हृदय अन्धा है, उसमें शुभ इच्छा, शुभ चिन्तवन, और शुभ वासनाओं की लेशमात्र Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५७ ) परछा नहाँ पडती! उदाहरणों में देखिये, यह भाव कैसा स्पष्ट है! (१) प्रागस्टस सीज़र (कैसर रोम) के यहां चीनी चित्रकार बहुत नोकर थे, जिन्हें पड़ी २ तनख्वाह दी जाती थी । एक दिन उस राजा ने अपने मन्त्रियों से पूछा कि "क्या मेरे देश के प्रादमी चित्रकार नहीं हो सकते " किसी ने इस का सन्तोषजन : उत्तर नहीं दिया । कारण यह था कि उस देश में चित्रकारी की ओर किसी की रुचि नहीं थी। इस का प्रा अभाव हुआ। आगस्टस सीज़र को बड़ा दुःख हुआ। उस ने इश्तहार दिया कि "जो कोई रोमी चीनियों का चित्रमें मुकाविला करेगा उसे अच्छा इनाम मिलेगा ।" किसी मनुष्य ने इस पर साहस नहीं किया। उस देश में दो चार सूफी रहते थे, वह राजा के पास, आ कर कहने लगे हम चित्रकारी मे चीनियों का मुकाबला करेंगे।" राजाने सामरे को दो दीवारों पर चीनी और रोमी दोनों से अपने २ चिन खींचने की शादी । चीच में केवल एक परदा पड़ा हुआ था दोनों काम में लगे । नियो ने राजा से बहुत रुपये रंग वगैरह खरीदने की ग़ज़ से लिए । सूफियों ने न एक पैसा मांगा, न राजा ने दिया । काम करते २ दो महीने गुज़र गए । राजा ने चीनियों को बुला कर पूछा-"क्या काम बन गया ?" यह बोले, “बन गया।" सूफियों से भी यही प्रश्न किया गया। Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन्हों ने भी यही उत्तर दे दिया: "जो करना था उसी सस्य कर चुके, जब चीनी कर चुके थे।" नारे मंत्री, राज्याधिकारी, मेट लाहुकार राजा के साथ थे। पहले चीनियों के चित्र देग्वे । यह महा विचित्र थे। देख कर सब दंग रह गए। फिर यूफिया ने कहा-"तुम भी अपना करतब दिखादो।" यह बोले परदा "उठा दीजिए।" परत उठाया गया। इनका करतब देखकर वह और भी भौचक होगए । जो कुछ चीनियों ने बनाया था वह यहां भी था । विशेष बात यह थी कि सूफियों का ज्ञाम अधिक भड़कीला था। यह बात किसी की समझ में नहीं आई। देर नक सोचते रहे । अन्तमे दोना को वरावर पारिनोपिक दिया राजा जानता था कि लूफी ईश्वरभक्त और सुरुभक्त होते हैं-पूछा-"क्या तुमने जादू किया कि वीनियों जैसे चिन बनाए और उनसे अधिक भड़कीले ?" सूफी बोले-"हमने चिनवित्र कुछ नहीं बनाए । सिर्फ दीवार को मांझा दे देकर गुद्ध किया है-वह दर्पण जैसो निर्मल और साफ होगई है। चीनियों के चित्रों का प्रतिविम्ब दीवार पर पड़ा है, उसी का यह प्रतिविम्बित है। इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं है।" यह शौच है और उसी का नाम शुद्धि है। परिश्रम तो तीर्थहरों ने किया है। जैनी यदि हृदयको मांझा देकर उन्हीं की भक्ति करें तो उनके सद्भाव आप इनके शुरु हृदय में प्रगट हो आयेंगे। और इनका काम सहजर्मन Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 8 ) वनेगा । जैनी गुरु मते है । तीथदर गुस्थे । जो उनकी गह चलेगा उनके आशीर्वाद से अपना जन्म बना लेगाऔर अजीव के बन्धन से छूट कर जीव के सच्चे, शुद्ध और निर्मल स्वरूप को पा जायगा । यह जैनधर्म का सिद्धान्त है। मूल तत्व तो कंवल इतना ही है । भक्ति करने से श्रापही श्राप उसके सारे अंग आ जाते है। किन्तु शौच का होना आवश्यक है। जब तक शोच न होगा सच्ची भक्ति कदापि न हो सकेगी। 'नहाये धोये क्या भया, तनपा मैल न जाय । मीन सदा में रहे, धोये वाम न जाय ॥१॥ - (कोर) तनको शुद्धि कीजिये, काया रतन धोय । नहाये धोये मुग्य लीजिये, मैल देहमा स्त्रीय ॥२॥ मन की शहि फीजिये, काम क्रोध मद त्याग । श्ररकार और लोभ से, जान बूझकर भाग ॥३॥ जिह्वामी बुद्धि बने, मोठी वाणी बोल । मनसे प्रचन निकालिये, हिये तगज तोल ॥an धर्म गहिंमा पालिये, यह है सबका गुमा । तन मन की शुद्धि यमे हिंसा कोनै न भूत ।।५।। निन्दा कपा, न कीजिये, निन्दा श्रधसी सार। निंदा से उपजे मभी, पलह क्लेश महान 10 मन दर्पण के बीच में, परनिन्दा की छार निमलता पलमें गई, भग्गई धल विकार ॥७॥ निन्दक हो हिमक भया, हिंसा करे उपाय। जिका की तन्नपार से, करे कलेजे घाव । गुरु के रंग गायकर, रह सरगुर के सग। गाढा रग मजीठ पा, चढ़े न दूना ग Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६० ) [१२] सयंम सयंम दो संकृत धातु 'लम (बिल्कुल) और 'यम (रोक थाम) से बना है। संपूर्ण रोक धाम का नाम संयम है। और इस रोकथाम का मन्तव्य इन्द्रियो और मन का रोकना और उनको अपने वशमें कर रखना है। मनुष्य क्यो वहकता है ? इन्द्रियों के वहकने से । जिसे जिस इन्द्रो श्री चाट पड़ गई है, वह उसे अपनी ओर खींच ले जाती है और गड्ढे में लेजाकर गिरा देती है। उसका सारा धर्म कर्म धूल और मिट्टी में मिल जाता है। कौन कह सकता है कि प्राणी को कितने दिनो ले किस इन्द्रिकी लत का अभ्यास हुआ है। अभ्यास दूसरी मति व स्वभाव वनजाता है और वह बेवश हो रहता है। ताख उत्ते कोई समझाये, वह अपने किये से नहीं रुक सका!जन्स जन्मान्तर की लत दुरी होती है। परंतु जैसी किसी ने यह लत डाली है. वैसेही यदि उसका उल्टा अभ्यास करने लग जाय तो फिर यह धीरे २ वदलने लग जाती है और यह कुछ का कुछ हो जाता है। और इन इन्द्रियो मे एक बात और होती है। यह कभी तृप्त नहीं होती | जितना मनुष्य इनके तन करने का उद्योग Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६१ ) I करता है उतना ही यह बढती जाती है । और शान्त नही होतीं । और मनुष्य निर्वल होकर उनके काबू में रखने के असमर्थ हो जाता है। इसलिये महात्माओं ने इनके विरोध ही का उपदेश दिया है । ज्ञान इन्द्रियां पांच ह ओर पांचही कर्म इन्द्रियां हैं । इनके अपने २ विषय होते हैं और उनकी चाल उन्ही की ओर रहा करती है और वह रातदिन उन्ही के मांगों की इच्छुक वनकर उन्ही की चाह उठाती रहती है । श्रांख का विषय देखना कान का सुनना, नाक का सूंघना, और जिहा का स्वाद रस लेना और चर्मका छूना है । इन्द्रियां तो सबको होती है किन्तु जिसने जिस इन्द्री की विशेष कमाई करनी है उसने उसे उतना ही बलवान बना लिया है। श्रोर उतना ही उसका प्रभाव उसके जीवन पर पड़ता है और जिसने पांचो को बलवान कर लिया है उसका तो कहना ही क्या है । वह रात दिन उन्हीं के पीछे लम्पट रहता है । जो दशा बाहरी इन्द्रियो की है वहीं श्रान्तर इन्द्रियों की है । आन्तर इन्द्रियां अंतःकरण कहलाती है । और वह चार- चित्त, मन बुद्धि और शहकार कहलाती है । यह सब की सब सम्मिलित श्रवस्याये मन कहलाती है। और इस मनका भी विषय है । श्रीरजे से वाह्यइन्द्रियां विषय स्वादका भोग चाहनी रहतीं है, वैसे ही यह मन भी विषयों का संकल्प उठाता हुआ, उन्ही के ररसे से बंध जाता है। बाहरी । Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६२ ) इन्द्रियां तो वस्तुतः इतनी दुखदाई नही भी होती है, किन्तु यह मन ऐसे नाच नचाता रहता है कि कभी चैन नहीं लेने देता। 'मनके मारे वर गये, नब तज वस्ती माहि । कह 'कबीर क्या कोजिये, यह मन वूझनाहि । इस मनके विषय काम, क्रोध, लोभ मोह और अहंकार है। वाहर और अन्तर इन्द्रियों का मेल है । और बह एक दूसरे के साथ गुथी हुई हैं । वाहरी इन्द्रियो की जड़ अन्तर में है । अन्तर की रोक थाम से यह भी वश में आ जाती है । पर यह काम बहुत कठिन है। इस लिए रोकथाम का साधन बाहर ही से प्रारंभ होता है। वाहर संयम और विरोध चाहे जितना करो, जहाँ तक अन्तर की जडबनी रहेगी. वह उत्पात मचाता ही रहेगा। इस लिये दोनों को रोकथाम एक साथ करनी चाहिये। तव लाभ होगा। इन्द्रियों के संयम को 'दम' और मनके संयम को 'शम' कहते है। इस संयम की प्राचार्यों ने नाना विधियां बताई है। उन सबका यहां लिखना कठिन और समय का निरर्थक खोना है। मुख्य उपदेश यह है कि "प्राणी हिंसा न करे।" और बस हिंसा की हानि सोच समझ लेने से फिर आप इन्द्रियो का निरोध होने लगता है। मन, वचन, काय से अहिंसक होना ही तीनों का निरोध कर लेना है। पर यह संभव कैले है? इसका सरल साधन यह है कि व्यवहार और विचार को Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६३ ) बटलता चले । मन्संग और साधु सेवामें रहे श्रापही श्राप निरोध होना चलेगा। वैसे यदि कोई उनको छोडना चाहे तो वह असमर्थ रहेगा । सन्सग और सेवासे साधन सुगम होता है। संगत में वैराग्य श्राता जाता है और इसके अभ्यास से फिर साधना काटिन नहीं होती। अभ्यास और वैराग्य से लव कुछ संभव है। जैन धर्ममें संयम वर्णन विविध भांति से श्राया है, जिसे देखकर व मुनकर प्राणी घबरा जाता है। और उसे असंभव समझने लगता है। यहां तक कि फिर उसकी रुचि जानी रहती है । और वह जैनधर्म को महा कठिन मान लेता है। कठिन तो वह है, परन्तु साधन के सामने कठिनाई नही चलनी एक काम किया, दूसरे को वारी आप आ जाती है जैनमन जहां तक मेने विचारा है, सुगम भी है। क्योंकि प्राकृतिक है। प्राकृतिक प्रवन्ध में गुगमना रहती है। किन्तु जो प्राचार्य हुए वह एक पर एक संयम बढ़ाते ही चले गये बातें तो बहुत हे और वह सच्ची भी हैं । किन्तु काममे सवकी सब एक साथ मनाने के कारण वह पहाड़ विदित हाने लगती है । और उनके सुनने से ही जी उकता और घवग जाता है । सुगम साधन सत्पुरुषों का सत्सग है। मगत ही सुख जपजे सगात ही दुख जाय । सगत परेको मलों की सब विगडी पानाय ॥१॥ , Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६४ ) नश्की सगत पाय कर, पशु करं नर-व्यवहार । साधुसगत जो नर करे, पावे उत्तम सार ॥ २ ॥ नौका सग लोहा तरे, देवो अपनी थाल काठ लोह में भेद है, भिन्न भिन्न निज साख ॥ ३ ॥ लोहा पडा जो अग्नि में, भया श्रमि का रंग । भस्म करे पल एक में, जो कोई करे प्रसग ॥ ४ ॥ सगत के गुणकी कथा, वर्णत वर्णन जाय । बाँस फॉस और मिश्री, एके भाव विकाय ॥ ५ ॥ संगत का प्रभाव महा प्रभावशाली होता है । यह बहुत सुगम है । यह मुख्य है और सब गौरा हैं इसे करलो और सब बातें तुममें आप श्राती जायंगी । सोच समझ मन आापने, धार सुसगत रग । त्याग कुसङ्गत सर्वदा, ज्यों कुचली भुग ॥ १ ॥ 1 त्याग कुसङ्गत शर्वदा कर सत्सङ्गत निल सत्सङ्गत सुख ऊपजे, निर्मल तन मन चित्त ॥ २ ॥ केला उगा जो बेर ढिग, निशदिन सहे क्लेरा । तज कुसङ्ग को जल्द तू, सुन गुरु का उपदेश ॥ ३ ॥ केला वेर के सङ्ग में, टर २ ठरकाथ ! व्यवहार प्रतिकूल जब, उरम २ दुख पाय ॥४॥ सङ्गत साधन सार है, नियम और यम की खान । जो कोई सङ्गत करे, लहे परम फल्याण ॥ ५ ॥ सत्संगत में वहिरंग और अंतरंग संयम दोनों का पालन सहज रीति में हो जायगा । Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६५ ) [ ३ ] तप 'नप' नाम तपने का है । तप कहते हैं, गर्मी पहुचाने को । जब किसी वस्तु को गर्मी पहुॅचाई जाती है, तब वह पिघलती, नर्म होती और फैल जाती है । विना तपके कभी कोई काम नहीं होता । यह जगत् का तत्व है और यहां जो कुछ तुम्हें दृष्टिगोचर हो रहा है, वह केवल तप मात्र का परिणाम है । इस तपके समझने में प्रायः समने धोका खाया है । तप कहते हे मनके गरम करने को, जब यह मन, गर्म होगा तबही इसके अन्दर दूसरे प्रभाव पड़ेंगे। नहीं तो यह अकड़ा हुआ उस का उस पना रहेगा । . साधन तप है। विचार तप दे । पठनपाठन, स्वाध्याय, संयम, नियम सब तप ही तप हैं । अब पदार्थको गर्मी पहुँचती है, तब ही उनका मेल और विछोह होता है । तपकी गर्मी से जब कोई वस्तु नर्म हो जाती है, तब ही उस पर दूसरे का संस्कार और fare प्रगट होता है। और प्रकार से यह सर्वदा संभव है । जीव- श्रजीव का मेल तप से हुआ है । यह तप का मेल, नादिकाल से है और जव यह एक दूसरे मे पृथक् किये Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६६ ) जायेंगे, तवभी तपही से यह संभव होगा। हां, विछोह के लिये उल्टा तप करना पड़ेगा । श्रजीवरूपी परिमाणु पहले तप्तावस्था में रहते हैं । फिर दिन पाकर उनमें ठंडक आती है। और फिर गर्मी और सर्दीका मेल होता है, तब उस मेल से सृष्टि होने लगती है । और उसका प्रवाह चल निकलता है । और फिर अब उल्टा तप होता है तब लय, प्रलय और संहार की बारी आती है । यह नियम है । स्त्री पुरुष जब तपते हैं, तब वह मिलते हैं और मेल से संतति होती है । जीव जन्तु कीड़े-मकोड़े पशु-पक्षी वृक्ष इत्यादि सब इस नियम के श्राधीन हैं । जन्म तपसे होता है । पालन पोषण तपसे होता है और मृत्यु भी तपसे आती है। इसी तरह जब जीव को अजीव के साथ नाता तोड़ने की सुझती है तब उसे तप करना पड़ता है । विना तप के कुछ भी नही हैं । न होता है औौरन होसता है । तीर्थङ्कर तपके इस नियम को भलीभांति समझ गए और यही कारण है कि उसकी मुख्यता को प्रधानता दी है । श्रन्यथा कष्ट को सहना तप नहीं कहलाता । वह केवल एक प्राकृतिक नियम है, जिसका प्रवाह वरावर चला करता है और उस में सुगमता है। हां, उल्टी चाल चलने में कुछ संभावित कठिनाई होती है । यदि वह समझली जाय तो बहुत शतक - Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६७ ) समभी दूर तो सक्ती है। यहां पर बात का बतंगडा बनाया गया और एक हाथ कफडी का नौ हाथ बीज दिखाया गया । हम खुली आंखों से देखते है कि लडका जय बाढ़ छोड़ता है, नो तप करता हुआ आता है, बीज जय अंकुरित होते हैं तो उन्हें भी तपना पड़ता है।' इन बातों में क्या कठिनाई है ? नीर्थकरों ने जो तप का उपदेश दिया होगा, वह भी ऐसा ही साधन है, जिसपर शब्दोंका श्राडम्बर खडा करके बहुत चड़ा स्थंभ बना दिया गया है। श्रोर जैनमत की इस तपकी कठिनाई को देखकर बुद्धदेव ने “मध्यमार्ग" के रूपमें उसका संशोधन करना चाहा और उसका नाम ' हीनयान' ही ( छोटा मार्ग ) रक्खा । वह वास्तव में कुछ न्यूनाधिक भेद रखते हुए जेन मार्ग की एक शाखा है। परंतु कालने उसपर मी आक्षेप किया । और समय पाकर वह भी कठिन मार्ग होगया और उसको 'महायान' ( बडेमार्ग ) का रूप धारण करना पडा । यह संसार की लीला है । जो बाता है वह कठिन को महाकठिन करने को प्रयत्न करता है । और एक बडी उसमें और जोड़ जाता है। तीर्थकरों की क्या शिक्षा थी, उसका पता पाना भी सरल नहीं है । केवल सुगमता की ओर दृष्टि करने की श्रावश्यक्ता है । सोच विचार करते रहने से श्रमली जीवन और करनी करने वाले श्राचार्य उसे श्रवभी समझ सक्ते है । तप का अभिप्राय केवल चिन्तन और विचारमात्र है । Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६ ) यह मन की वृत्तियों का निरोध और उसको रोक थाम है । ओ ऐसा करता है वह तपस्वी है। इससे श्रागे बढ़ना उसके श्राशय को हानि पहुंचाना है । सारी श्रायु तप के आडम्बर मे व्यतित हो जायगी और सार हाथ न आवेगा । तपके लक्षण सुनो:-- ( १ ) प्रायश्चित - दोष होने पर, शुद्धि करना (२) विनय - श्रतदेव और गुरु धर्म आदि का इर करना । ( ३ ) वैयावृत्य - साधु सेवा और सत्संग है । ( ४ ) स्वाध्याय - शास्त्र पाठ । (५) व्युत्सर्ग- शरीर आदि का ममत्व त्याग इत्यादि (६) ध्यान - एकाग्र चिन्ता । यह सब क्या है ? केवल विचार और चिन्तनमार्ग ! यह तप के अन्तरंग साधन है। इनमे कौनसी कठिनाई है ? बहिरंग साधन को भी सुनलो: ( १ ) अनशन - उपवाल करना । ( २ ) अनूदर - स्वास्थ्यरक्षा के लिए भूकसे कम खाना । ( ३ ) व्रतपरिसख्यान - भोजन करते समय उचित वासनाओं को चित्त में दिये रहना. जिसमे मन उसे स्वीकार करे और गुरु का ध्यान रहे । मन भोजन ही से बनता है । Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६ ) (४) रसपरित्याग-चिकना चुपड़ा खाना न खाना। (५) विविक्त शैय्यासन-एकान्त में पृथ्वी पर लेटना' जिसमें शरीर प्रारोग्य रहे और पृथ्वोकी श्राकर्षण शक्ति उसमें प्रवेश कर सके। व मन विकारी न बने। (६) कायक्लेश-शरीर को ऐसा बनाना कि उसमें सहनशक्ति श्राजाये । आरामतलब न होने पावे, इयादि इत्यादि। दाहेःतप कर जप कर भगन कर लोगजुगति पिस लाय। तरके प्रभाव से, जन्म सुफल हो जाय ॥१॥ अब लग ममता दे, संग, तब कग तप नहि होय माता त्यागे देह का, तपस्वी कहिये सोप २ तर की विता पर बढ़ चले, धार सत्यकी टेक । योग अगि घर प्रगट हो, महित विचार विवेक ३ तपपी के मन इध है, इष्ट से परम स्नेह । इट भाव जप चिन रमा, फिर महिं देह न गेह ॥ ४ साधु-ससी और सुरमा, तीनों तप के रूप तीनों में साहस रहे, पडे न श्रम के कूप ।। । Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७० ) [४] त्याग लंकृत ने न्याय तज (छोड़ने ) ले निकला है। इसना चोगिक अर्थ दान है । विरोयनर रूढ़ ही अर्थ लिया जाता है । __ननुष्य कमाछड़ेगा ? और क्या ग्रहण करेगा ? क्या पदार्थ प्रण योग्य हैं और कौनसी वस्तु न्याग योग्य है ? इस पर शास्त्रकारो ने बहुत विचार तडाया है। और पोथे के पोथे रंग जाते हैं । किन्तु वान थोड़ोसी है । उसे यूँ ही वतगड़ा बनाकर साधारण मनुष्यों को धोकेमे डाल दिया है। जो पदार्थ व्याग के योग्य है, वह केवल मन का ममत्व है और इसलिए त्याग कानात्पर्य मानसिक भाव से है। और प्रकार सनभाने से शब्दों का आडम्बर तो रचा जाता है। किन्तु यथार्थ की समझ नहीं पाती। जिसने ममत्वको सजा, उसने सवको नज दिया और उसका पूर्ण त्याग हो गया । और जिसने उसे नहीं छोड़ा, उसने कुछ भी नहीं छोड़ा। जिसने जीव को अजीक से वांध रक्खा है । वह सिर्फ मेरे तेरे पने की कल्पित रस्सी है। यह चूट जाय और बस, मनुष्य युक्त है। कीर साहब कहते हैं: "मोर तोर की जेवरी, वट वाध नसार दामोरा क्यों बधे, जाके नाम अधार १ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७१ ) भोर- तोर निशि दिन करे, मोर तोर है धो ममता तन कर मुक्त हो क्यों है हिये का वध ॥ त्याग के विषय में एक कवि ने ऐसा कहा है : त्याग त्याग का रुप में सब कुछ डाला त्याग । लोक, पर ला और ऐस तज, पिया त्याग का त्याग यह त्याग की सीमा है। पर यह भी तो मानसिक भाव है। इसके सिवा और वह क्या है ? और यदि किसी का ऐसा त्याग हो, तो वह निस्सन्देह सराहनीय है और उसने त्याग की हद करदी । अब आगे त्याग की कोई मंजिल नहीं रही। किन्तु यू किसी से त्याग हाता नहीं । यह वही भारी बात है । तब त्याग का दूसरा यौगिक अर्थ सोचा गया और उसे दान दक्षिणा का वस्त्र पहनाया गया। यह भीत्याग ही है। दान ऐसा हो कि दायां हाथ दे और वाये हाथ कोलवर तक न होने पावे। इसे निष्काम दान कहते है। और इसमें करते रहने से सच्चा त्यागश्राप ही आप आजाता है। परतु इसमें भी ममत्व और अहंकार भाव आकर घुस गया और दान को लोगो ने सान वड़ाई और प्रतिष्ठा प्राप्त करने का साधन बनालिया। और जो त्याग का मन्तव्य था उसका लोप हो गया । फिर भी दान देना अच्छा ही है । क्योकि इससे अंतःकरण की शुद्धि हो जाती है। दान नाना प्रकार का है। अन्नदान, वस्त्रदान विधादान, Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७२ ) शान दान, औषधि दान, अभय पानइत्यादि लाखों ही दान हैं। अभयदान की मुख्यतो है। ज्ञानदान सर्वोपरि है, क्योंकि इसी से मुक्ति मिलती है । ऐसा दान हर एक नहीं कर सकता। इसके लिये बड़ी सामर्थ्य और बड़ी योग्यता चाहिए । अन्नदान से थोड़े समय के लिए वृप्ति होती है। औषधिदान से भी रोग 'कुछ दिनों के लिए हट जाता है। किन्तु शान दान से नित्य निवृत्ति हो जाती है। हां सम्यक् शान हो, जो समदर्शी बनाये। वाचकशान को शान नहीं कहते, वह शास्त्रों की युक्तियों की नोता रटंत रीति है, जो भ्रम से छुटकारा नहीं दिला सक्ता। ___इन सब में गुरु भक्ति, इष्ट वा श्रादर्श भक्ति के रूप मे जो दान दिया जाता है वह सबसे अत्यन्त महाकठिन व्रत है। और कोई ऐसा ही बहुत बड़ा दानशील सूरमा होगा जो इस में पूरा हो । यह संतों का मार्ग है संत ही ऐसा विचित्र वीर हैं जो अपने आप को दूसरों की भलाई के निमित् अर्पण कर देता है: तरवर सरवर सतजन, चौधे बरसे मेह । परमारथ के कारण, चार्ग धारे देह ॥६॥ तरवर फलै न श्रापको, नदी न पीवे नीर । परमारथ के कारण मतन धश शरीर ॥२॥ दूसरों का उपकार करते हुए अपने जीवन का किश्चित बिचार न रखना, यह संसार में किसीर प्राणी के भाग में Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७३ ) प्राता है। हमने किसी जगह बर्द्धमान जी की सहल शक्ति का उदाहरण दिया है। यही बहुत है, त्याग और दान दोनो की यह कलकती हुई दिव्य प्रतिमा है दादे स्याग त्याग दे त्याग, छोड मोर ओर शेर। यही त्याग की वन्तु है, इसत्ता भोर न छोर ॥१॥ घर छोडा तो पाना, देह मंग नित गेह । यह तो तेरे साप है, देह का त्याग-स्नेह ।।२१) दर तना, अच्छा किया, यह अजीय फा,रूप। ममतात्याग का त्याग , मागे भरम का कृप । ममी तजी तोश्यारा,माग तजा नहि जाय। गजा भिखारी दोन को, माम रहा लिपटाय ॥४॥ मानतजा प्रथमा लिया, मम हुये मान अपमान । अप तगने को क्या रहा। जीते जी निर्वाण ॥५ है दे दे फुष तो गक्षा, दान धर्म न्यौहार । दान शुद्ध उदय करे, सम भगम विचार ।। ६ ॥ सय लग नाता देव पा, तब नग दे कुष दान ! प्रेम प्यार सन्मान दे, दान की महिमा जान ॥ ७ ॥ सीव जन्तु संग दया कर, दया भाव नित पाल । दया दान उत्तम महा, हिया जिय को निहाल॥ ॥ मन मानी और फर्म से, हुआ अहिसक मो बह दानी है जगत में, सब का प्यारा सो TE Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '( ७४ ) मोच अहिंसा-धर्म फो, परमधर्म 'पाग योच । स्वार्थवश हिसा करे, वह नर सव में नीच ॥ १० ॥ अभयदान का दान दे, अभयभाव वित्त गक्ष ! यही जैन मत सार है, यह सैनी की साख ॥ ११॥ अभयदान से जीत ले, मन इन्द्रो और देह । कीव जो जीते धनीय को, उत्तम मत सो लेख ॥ १२ ॥ , देव देह कुछ देह त, जम लग तेरी देह । चित्तसे कर उपकार मित, जीयन का फल लेह ॥ १३ ॥ REE EMAXO TA NiveNAIDUN न ESIRAMPA AMES PAM 66 UTA M Venumare Pla MIRAT NNNN MAN 40 १mire Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१४] आकिन्चन्य श्रामञ्चिन शब्द संस्कृत धातु 'श्रा' (नहीं) और 'किञ्चन्' (कुछ) से बना है। कुछ न लेना ही प्राविञ्चन है। श्रथवा 'श्रा' (नही), किन्' (फ्ता), और 'चन्' (कुछ) अर्थात् क्या कुल नहीं, यह श्राक्थिन् है। मन में कोई किसी बात की इच्छा न हो, किसी से कुछ न ले, किसी से किसी पदार्थ की आशा न रफ्खे, यह सच्चे जैनी (विजय करने वाले) का लक्षण है। परिग्रह के भाव का मनसे मेट देना उत्तम आकिचन है । कवीर सा० को कथनहै: माह मिटो चिन्ता गई, ममुमा बेपरवाह । ताको कुछ नही चाहिए, वह शग शाहनगाह ।। निन्द, अपने प्रापे में रहना, आप अकेला रहना, सिली जन, पदार्थ, विषय, भोग, सामग्री, विचार, भाव इत्यादि से असंग होजाना, सच्चा अपरिग्रह है। यह जैनी यती के व्योहार का श्रादर्श है । सब से नगा होजाना, नंगा होकर रहना और नगे घरतना, इसी को सच्चा श्राकिञ्चन कहते है । जीव नझा हो जाय, असंग हो रहे, आप अपना सहारा, आसरा और कुटस्थवत आधार और विष्ठान होकर रहे, यही जैन मत का सिद्धान्त है। वेदान्त यदि कपोल कल्पित युक्तियों को Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७६) छोड़ तो उनमें जैनधर्म पूर्ण रीति से झलकता हुआ प्रतीत होने लगे। वह योही मिव्यात्व मे फंसकर अनुयायियों को सामान्यवाद, विरोषवाद, ईश्वरवाद, मायावाद, परिणामवाद, विव्रतवाद इत्यादि के भ्रम में डालकर झगड़ालू और पक्षपाती बना देते हैं। वह वाचिकहानी घनकर दंगलवाज़ पहलवानी की तरह दांवपेल खेलने लग जाते है ।जन्य अभिमानी हो जाते हैं। अपने को अच्छा और दूसरों को युरा समभाचे लगते हैं । निग्रंथ नहीं होते और जड़चेतन की प्रन्थिनहीं खुलती। जब दोनों प्रकार वह निग्रंथ हो जाये, तो फिर सचाई का साक्षात्कार हो जाये। पुस्तक चाहे कोई भीहो. मनुष्यों ही ने रचो हैं। किसो पुस्तक ने मनुष्य को नहीं रचा। सांख्यमत का प्राधार रखते हुए खैर नही-वह क्यो मिथ्या विचार में अपनी श्रायु को नए करते है । सचाई को सचाई की रीति से यो ग्रहण नहीं करते? वाद विवाद मे रात दिन पड़े रहने से लाभ क्या होता है? मा सुख विद्या के पढ़े, ना सुख वाद विवाद । साथ नुवी 'सहजू कहे लागी शुन्य समाप ॥१॥ 'सह' उन्ही लोहनी, दिन पानी दिन आग ! नेते सुरातुख जगा के, 'सह'तू तग भाग ॥ २१ इलीमा नाम शाकिञ्चन है। शेष कहने सुनने और दिखावे की बात है। जो पाकिचन्य धर्म का अनुयायी है वह किसी से मालेगा और उसे क्या लेना है ? Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१) घेदान्त एक जीव मानता है। जैनी संसार दृष्टि से अनेक जीव मानते है । यह टोना में पहला मतभेट है। वेदान्त अपने सिमान्त के पक्षसी पुष्टि, लगकर युक्ति प्रतियुति से काम लेता है। जैनी इसे निरर्थक श्रम समझता है । फिन्तु उसका भी तो श्रादर्श दी। वही अपने एक जीवको एक नमझता एमा उसे अजीर में अलग करने के जनन में लगा रहता है। और जब यह पूर्ण रीति से भसग हो जाना है, नय उसीका लिड कहते हैं, जो सर्वशपर है। (२) येदान्त अगर को मिा कहता है । जैदी उस मिया चहान्त कीधि से नदी फहना यह फेवल जगत् ले श्रसंग होने या जनग करता है। जाजम अथवा मिथ्या को मिथ्या और मम मानता हुश्रा उसक लपंट में पड़ा रहता है, यह मूल याशर को न समझता उपा, भ्रम की उपासना में लगा रहता हैं। और जो चाना के लड्डू, पकाया करता है, वह उसके भावकी एट करता है। उसे उससे छुटकारा पा होगा? यहां प्राशिवन्य करने की श्रावश्यता है। नीव अकेला और असग और नगा हो आय, यह उसका परतब है। उसके अतिरिक्त सनी और चाहता क्या है ? यह वेदान्त और डैनधर्म में दूसरा मत भेद है। सोचने पाले सोचें तो उन्हें भी पता लग जाय कि पक्षपात के सिवा और क्या भेद है ? (३) चेदान्य काहता है, ईश्वर मिथ्या, जगत् मिथ्या, Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७ ) वेद मिथ्या हैं। कहने को तो वह ऐसा कहता ही है, किन्तु वह इनके झगड़ों को नहीं छोड़ता । फिर इनके सिद्ध करने से उसे लाभ क्या मिलता है ? रगड़ो-झगड़ों से पक्षपात तो पढ़ता है और वह कहीं का कहीं जा पड़ता है। जैनी केवल अरने करतबका पालन करता हुआ, करनी और साधन में लगकर पाकिसय द्वारा उसका साक्षात् कर लेता है। यह तीसरा मतभेद है, जो जैन धर्म और वेदान्त में है। (४) प्रलपद को लव कुछ मानकर उसे आदर्श बना लेता है और उसीके इर्दगिर्द चार लगाता हुआ उसे पूर्ण अवस्था समझता है । इसमें भी कोई हानि नहीं थी, किन्तु यहां भी वह ब्रह्मपद को हवा ही समझ रखता है। और यह एक हव्वा ( Phantom ) होकर उसे कहीं का नहीं रखता। अजी काम में लगो । जीवका अजीव से प्रसंग करलो । इतना ही करना है। बातो में क्या धरा हुआ है। ब्रह्म दो संस्कृत धातु, 'ब्रह' (बढ़ने ) और 'म' (मानसोचने ) से निकला है। जीव और अजीव को सम्मिलित अवस्था का नाम ब्रह्म है । जब यह कहा जाता है कि जीव ब्रह्मा एक है-जब जीव ब्रह्म की एक संज्ञा है तो फिर भगड़ा किस बात का रहा ? अब क्या उलझन रहा ? जगत् मिथ्या ही सही ! जिसे जैनी वेदान्त की तरह अनहुआ नहीं करता। दिन्तु वह भो तो उसो जीवको मुख्य समझ रहा है । और Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७६ ) जोवको शुद्ध और निर्मल कर लेना है, जो पाकिश्चन्य से संभव है। काम करने का है कहने या बातों में पढ़कर लड़ने का नहीं है। यह चौथा भेद है जो जैनमत और वेदान्त (५) वेदान्त और जैनी दोनो ही निर्वाण को समझते मानते हैं। निर्वाण फक कर दुभा देने को कहते हैं । जैनियों का मन्तव्य तो स्पष्ट है । जीवसे अजीवपने को फंक कर घुझा देनो और जीवको श्रसंग कर लेना है । वेदान्ती, जव अपने सिद्धान्त अनुसार जगत्को अनहुआ और मिथ्या मानती है, तो यह क्या फकेगा ? और क्या फंकर पुसावेगा ? उसे तो कुछ करना ही नहीं। हां, और कुछ चाहे वह करे यह न करें। चात बनाता फिरता है जो उसे उसके सिद्धान्त से गिरा देता है। यह पांचवां भेद है जो जैन और वेदान्त में है। पाकिञ्चन् का अर्थ स्पष्ट रीति से पता दिया गया । व्यौहार में अपरिग्रह को पाकिञ्चन कहते हैं। यह भी सही है। श्रप दोहे सुनोः "भीन्न माग व्व्यम फरे, सो फिश्चित नहीं साथ । भोरमे पजे कल्पना, गाढ़े अधिक उपाष ॥ १॥ पुग शिक्षक ना मिला, यमा भिमागे साध । साथ, इसे न तुम कहो, उसको राग असाप ॥ ३ ॥ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 0 ) पुगं सत्गुरु ना मिल्ला, सुनो अधी सोस । माग नती का पहनफर, घर घर मायो भीख ॥ ३ ॥(कोरस) "गृही का टुकडा बुग, नौं नो अमुल दाँत । मान करे तो अपरे, नाही तो खाँच प्रति 'कवीर' पर अतीत का बहुत करे उपकार। जो धालस वस साये नित्त, चूड़े कालीधार ॥५॥ श्रा घन में भेद है, अन घा में भाव । उसो श्रस को ग्रहण कर जो प्रीति का बने उपाय R६॥ भित बनातोषगा यना, यह नहीं जती का रूप । को कमाई, और फिर, पड़े न भर के कृप ॥ ७१ APERS SRA Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १ ) [१६] ब्रह्मचर्य ब्राह में पर्या करने को ब्रह्मचर्य फाइते है। आज कल ग्धी त्याग का नाम महाचर्य रक्खा गया है, वह ठीक है। किन्तु वह इतना ही है। ब्रह्मशब्द के कोष में अनेक यौगिक अर्थ हैं। जैसे तप, ज्ञान, शान, पवित्र, विधा इत्यादि । इन सब सस्मिलित गावों, कर्तव्यों और स्वाध्यायों में रह कर तपरधी की रीति पालन करना ब्राह्मचारी होता है। इन से बीय शीण नहीं होता किन्तु उसे पुष्टि मिलती है और उसकी पुष्टि से साहस की वृद्धि होती है। और यह साहस एपट की प्राप्ति में सहायक होता है। कहा गया है: জ্বা ঘা বন্ধুৰ মান রুমাননি। এখন । स्थलाहारी प्रोत्यागी विद्यार्थी पचनपणम् ॥ कौव्वे जैसी चेटा, बगले जैसा ध्यान कुरते जैसी नीद हो, खाना थोड़ा खाये, खी से सम्बन्ध न रक्खे, विद्यार्थी अथवा भान के साधन करने वालों के यही पात्र लक्षण हैं और इनको मुख्य समझना चाहिए। ब्रह्म आत्मा है। ब्रह्म और आत्मा जीय ही है। जीन के सिवा ब्रह्म और आत्मा कोई नहीं है। जैनधर्म इसे बडे जोर के साथ कहता है। और लोग या तो ब्रह्म और जीव मे भेद मानते Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २ ) है या अगर वेदान्तियों की तरह कुछ समझ जाते हैं तो बहुत देर पीछे ये हाथ घुमा कर नाकका पकड़ते और ब्रह्मजीव की एकता को सिद्ध करने पर लग जाते हैं । इस एकता के मानने मनवाने पर इतना शर्म या किया जाता है ? पहिले ही कह दिया जाय कि जीव ब्रह्म है, और ब्रह्मजीव है तो इसकी श्रावश्यका ही नहीं रहती। जो अजीव के भावको मेटता हुमा केवल जीव भाव की शुद्धि की श्रार हष्टि रखता है उसी का नाम ब्रह्मचारी और उस क्रिया का नाम ब्रह्मचर्य है। जो इस चर्या में सबसे अधिया हानिकारक है यह स्त्रीजाति का संग है । स्त्री के साथ रहने से ब्रह्मचर्य व्रतके भंग शेने का क्षण प्रति क्षण डर रदता है। और काम अग के प्रबल होने की संसावना रहती है। इस लिये श्री त्याग का नाम अलचर्य ही होगया । कबीर साहब कहते हैं: "पानी देख चि बजे, नार देव के कामा माया देख दुम्न ऊरजे, साधू देख के राम ॥ स्त्रीसंग ब्रह्मचारी के लिए महा भयानक है। इससे पच कर रहने में ही भलाई है । कौन ऐसा योद्धा, सूरमा, यती, तपस्वी है जो कभी इस पर विजय पा सका है ? कबीर जी फरमाते है: Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३ ) पर नागे पैकी छुरी, मत कोई क्गे प्रसग । दश गस्तक गवण गया, पर नारी के संग ॥ १ ॥ मार्ग में प्रोगुण मक्षा, समझ त्याग दे माग । विश्वामित्र का समझ लो, भया सहा तपमा ॥ ३ ॥ वाने पी पाया पहत धन्धे होत भग। 'मीर' दमको रोग गति वा नित नाती के सग ॥ ४॥ नागे मिरज न देखिये, नित न कीजे हो। देय हो ते विष है, मन भावे पुछ और ॥ ४ ॥ मारि नशा ती गुग्ण, पामो मर के होय । भत्ति मुक्ति गिरा ध्यान में बैठ मके न कोय ॥५॥ उदाहरण देखिये कि, व्यास जी का एक चेला लिया को भागवत की कथा सुनाया करता था। व्यास ने कई मरतबा समझाया किलियों में न जायां कर नहीं नो नारा जायगा। ओर पराहामनीण हो जायगा। इसने हरबार यही उत्तर दिया कि मैं निर्मल मनुष्य नहीं है जो रिश्यों का प्रभाव मुझ पर पड़े । व्यास जी समझाते २ थफ गर । एक दिन क्या हुभा, जिस कुटी में चेला 'हता था. कोई रत्री बाई । और कुटी के समीप पैठ गई । पानी बरस रहा गर। बरसात का महीना था। इसे बुरा लगा । बोला-"चली जा-या तेरा क्या काम है ?" उस ने रोकर और साथ जोड कर कहा "पानी थम जाने पर मैं चली जाऊँगी-पानी में फैले जाऊ ?"यह चुप हो रहा । फिर स्त्री कुटी के भीतर दो चार गज चली आई । यह Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (==) फिर कुछ हुआ । वह बोली-"मैं तो मनुष्य हूँ पानी में कुछे भी बाहर नहीं रहते । जरा पानी रुके फिर चली जाऊँगी ।' यह चुप हुआ । लदृष्य नेत्रों से देखता ही रहा । वह फिर आगे बढ़ी । उसने तीसरी बार फिर रोका। उसने फिर रोकर क्षमा मांगी। खिसकते २ वह इस के सन्निकट श्रा गई | चेसे से न रहा गया, युवा था उस पर हाथ डाल बैठा । ह्री ने लपककर गालों पर दो तमाचे जड़े । “मूर्ख ! नहीं मानना था । स्त्री प्रसंग से बच कर नही रहता था। देखा यूं स्त्रि का पुरुष पर प्रभाव पड़ता है ।" वह लजित हुआ, क्योंकि श्री के बनावटी भेष में व्यास जी श्राप उस के चिवाने के लिये आये थे । वीय गाय हैंस खेल कर, इनन सचन के पास । यह 'कबी' इस घास को समझस सन्त सुजान ॥ उ० (२) ब्रह्मा तप कर रहे थे । एक स्त्री उन के समीप आई | इन्हें काम उत्पन्न हुआ । बड़े ज्ञानी ध्यानी वेदाभिमानी थे । नहीं संभल सके, सारे गये ! अपने पद से पतित हो गए । तब से यह कहावत चली आती है H "त्रियाचरित्रम् पुरुषस्य भाग्यम्, ब्रह्मो न जानाति कुतो मनुष्यः । " उ० (३) इन्द्र अहिल्या की सुन्दरता पर मोहित हुआ और लज्जित होना पड़ा । राम सीता के मोह में उन्मन्त हो M 4 Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५ ) गए । शृङ्गी अषि की एक सुन्दर स्त्री ने दुर्गति फराई । दशरथ ने स्त्री के कारण राम को वनवास दिया। भीष्म के पाप सन्तनु मत्स्योदरी पर रीझ और भीष्म ने ब्रह्मचर्य का घोर व्रत धारण किया। पाराशर ऋषि इसी मत्स्योदरी के प्रेम में लिप्त हुप, व्याल की उससे उत्पत्ति सुई । विश्वामित्र को मेनका ने छला । और उस से शकुन्तला उत्पन्न हुई। इत्यादि उदाहरण है। प्रायों कामल देय कन, गाढ़े वा केश । हाथों महदी लाय कर, बाघिन खाया देश , सुर नर मुनि तपसी यती, गले काम की फाँस। जप तप संयम त्याग कर, चित से भये उदास ॥१॥ नारी रसरी भरम की, मुसक बँधाचे लोग । जोगी नित न्यारा रहे, तब कुछ साथै योग ॥ २ ॥ क्रोधी लोभी तर गए, नाम गुरु का पाय । कामी नर कैसे तिरे, लोक परलोक नशाय ॥ ३॥ नारी नरक की खान है, गिरे भ्रमवश जोय । नर से पह नरकी बने, बुद्धि विवेक सब खोय ॥ ४ ॥ कहता हूं कह जात हूँ, समझ कीजिए काम । जो नारी के घश पड़ा, उसे कहाँ विश्राम ॥५॥ मैं था तो सत्र में चतुर नर, समझ हुआ अनजान। नारी के वश में पड़ा, मूल गया सव ज्ञान ॥ ६ ॥ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( =६ ) नरी नदो अधाइ जल गिरा जो उवरा नाहि । ऐसा समझ विचार कर मत ले उस की थाह ॥ ७ ॥ निज अनुभव की बात है, पोथी लिखी न जान ! सत्ज्ञान ॥ = ॥ नारी संग जो परिहरे, तब पाये Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८७ ) अन्तिम विचार मैंने बुढापे में जैनमत की पुस्तकों का अवलोकन किया । मुझ से कहा गया- जैनधर्म के दशलक्षण धर्म पर अपनी सम्मति प्रगट करो । जो मेरे जी में जाया कह सुनाया । निष्पक्ष होकर अपने भाव को प्रगट कर दिया । इस में न कही वनावट है, न लगाव लपेट है-जो बात है स्पष्ट है । क्या कहूँ मुझे न अवकाश है-न अव शरीर लिखने के योग्य है इस के अतिरिक्त में रात दिन राधास्वामी सत्सग के काम में लगा रहता हूँ । धाम, मंदिर, संस्कृत पाठशाता, हाईस्कूल बाजार इत्यादि के प्रवन्ध में रहता हूं । नहीं तो में उपनिपदों और वेदों तक में दिखा देता कि उन में कहां तक जैन मत का भाव लिया गया है । मुझे छाव जाकर प्रतीत होने लगा है कि जैनमत बहुत प्राचीन है । निग्रंथ धोने से उस की शिक्षा 'इल्म सीमा' और रहस्य रूप में चली श्राई है । यह स्मरण रहे। मैं जैनी नहीं हूँ न उस समुदाय से मुझे कभी सम्बन्ध था और न छाय है । परन्तु स्वाध्याय करने पर विदित हो गया कि संस्कृत शब्दों के यदि रूढ़ि अर्थ से मिड किया जाय तो जैनमत के सिद्धान्त हिन्दुयों और चौडा के प्रथों में बहुतायत के साथ मिलेंगे । Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो कुछ मैने लिखा है वह इस छोटे ग्रंथ के लिए कम नही है। प्राशा है जो इसे पढ़ेगे निष्पक्ष हाफर जैनधर्म की निन्दा न करेंगे। जैसी अब तक लोग अनसमझी से करते चले आ रहे हैं । मैं जैनियों और हिन्दुओं में कोई भेद नहीं मानता । लिखने का तात्पर्य है कि दोनों दल के अनुयायी परस्पर प्रेम परतीत से रहे और मतमतान्तर के वाद विवाद में न पड़कर हिन्दू जाति की उन्नति में लगे । M Page #99 -------------------------------------------------------------------------- _