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________________ ( ७ ) वेद मिथ्या हैं। कहने को तो वह ऐसा कहता ही है, किन्तु वह इनके झगड़ों को नहीं छोड़ता । फिर इनके सिद्ध करने से उसे लाभ क्या मिलता है ? रगड़ो-झगड़ों से पक्षपात तो पढ़ता है और वह कहीं का कहीं जा पड़ता है। जैनी केवल अरने करतबका पालन करता हुआ, करनी और साधन में लगकर पाकिसय द्वारा उसका साक्षात् कर लेता है। यह तीसरा मतभेद है, जो जैन धर्म और वेदान्त में है। (४) प्रलपद को लव कुछ मानकर उसे आदर्श बना लेता है और उसीके इर्दगिर्द चार लगाता हुआ उसे पूर्ण अवस्था समझता है । इसमें भी कोई हानि नहीं थी, किन्तु यहां भी वह ब्रह्मपद को हवा ही समझ रखता है। और यह एक हव्वा ( Phantom ) होकर उसे कहीं का नहीं रखता। अजी काम में लगो । जीवका अजीव से प्रसंग करलो । इतना ही करना है। बातो में क्या धरा हुआ है। ब्रह्म दो संस्कृत धातु, 'ब्रह' (बढ़ने ) और 'म' (मानसोचने ) से निकला है। जीव और अजीव को सम्मिलित अवस्था का नाम ब्रह्म है । जब यह कहा जाता है कि जीव ब्रह्मा एक है-जब जीव ब्रह्म की एक संज्ञा है तो फिर भगड़ा किस बात का रहा ? अब क्या उलझन रहा ? जगत् मिथ्या ही सही ! जिसे जैनी वेदान्त की तरह अनहुआ नहीं करता। दिन्तु वह भो तो उसो जीवको मुख्य समझ रहा है । और
SR No.010352
Book TitleJain Dharm Siddhant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivvratlal Varmman
PublisherVeer Karyalaya Bijnaur
Publication Year
Total Pages99
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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