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________________ वो तो तप करना श्रेष्ठ जानते पर शक्ति के श्रभाव से स्वल्पतप करते, पूर्ण इच्छा को वश नहीं कर सकते, यों तो ममत्व किसी मे नहीं रखते तथापि गृहपालन पाप्रिवन्ध रख कर धनादि ले परिसित लोग त्याग करके परिमित दान देते-सर्वत्यागी नहीं हो सकते, यो नो सिवाय सजीवत्व के किसी को सी अपना नही समझते तथापि गृहस्थ में चेतन अचेतन पदार्थों को आवश्यक्तातुसार रखतेऔर उनके ममत्व ग्ताने, यो तो ब्रह्मचर्य को ही उपादेय ानते परन्तु वीर्य नी कमी ले पूर्ण शीलन पालते हुए विवाहिता स्त्रीले वर्ताव करते । इस तरह गृहस्थ जन इस उत्तम दशलक्षण धर्म के आदर्श को ही उपादेय मानकर जितनी शक्ति कम है, उतना उनको कम दरजे बर्ताव, में लाते तथा जितनी शक्ति बढती जाती है उतना इनका वर्ताव भी बढ़ाते जाते हैं। इस रीति से इस दशलक्षणधर्म को सर्व मानवसमाज अपनी स्थिति के अनुसार पालकर अ कुलता, क्षोस, रागहेप परपीड़ा करण से बच सकता है और सुख शान्ति, वीतरागता, समता तथा अहिंसात्मक भाव से वृद्धि कर लकता है। __वास्तव में आत्मविकास के ये सच्चे साधन है, क्रोधादि चारकपायों के संहार के ये अमोघ शस्त्र हैं। मोक्ष मन्दिर में पहुंचाने के लिये धर्मरूपी गाडीकेदश पहिये है। सुखामृत पिलाने यो अद्भुत व अक्षीण अमृत के घट हैं। महात्मा शिवव्रतलाल ने इन पर बहुत मनन योग्य प्रकाश डाला है। हम उनके प्रति आभारी है। -३० शीतलप्रसाद
SR No.010352
Book TitleJain Dharm Siddhant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivvratlal Varmman
PublisherVeer Karyalaya Bijnaur
Publication Year
Total Pages99
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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