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उकता जाता है, फिर भी इसका त्याग नहीं होता और न कोई उसे तजना चाहता और न तजता है। __एक मनुष्य है जिसमें प्रोगुण भरे हुए हैं। घर में ऊधम मचाता है, धमाचौकड़ी करता है। स्त्री, पुत्र, सभी उसके नाम को रोते है । परन्तु जब कोई अतिथि, अन्य पुरुष या पाहुना उसके घर आजाता है तो वह अपने आप को सभ्य श्रोर प्रतिष्ठितरूप मे प्रगट करता है । यह कपट और छल तथा धोका है । ससार में सब जगह ऐसा ही व्यवहार हो रहा है। जो जैसा है वैसा नहीं दिखता । जो जैसा है वैसा नहीं करता और उसको वैसी ही वृत्ति बनती जारही है, सहजावृत्ति अथवा आर्जवभाव उसमे नहीं आता है और कौन जाने उसकी कर जाकर शुद्धि होगी।
तीर्थदरों ने इस प्रार्जवभाव पर घड़ा ज़ोर दिया है। ऋषभदेव जी से लेकर बर्द्धमान स्वामी तक सव के सब नग्नावस्था में रहते थे । उनको न किसी का भय था, न लज्जा थी न मन में हिचकिचाव था। यही तीन अर्थात् भय, लज्जा और हिचकिचाव पप के रूप है, और पापी मनुष्य के लक्षण कहे जाते हैं । यह तीर्थंकर आत्मवी पुरुष थे। जिन्हो ने अजीव संसर्ग का सर्वथा त्याग कर दिया था। आज संसारी मनुष्य पाखण्डी होकर इस अवस्था से घृणा करता है। किन्तु आगे चल कर लोग समझ जायँगे कि बिना आर्जव भाव के सच्चा सुख नहीं प्राप्त होता।