Book Title: Jain Dharm Siddhant
Author(s): Shivvratlal Varmman
Publisher: Veer Karyalaya Bijnaur

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Page 78
________________ ( ६ ) यह मन की वृत्तियों का निरोध और उसको रोक थाम है । ओ ऐसा करता है वह तपस्वी है। इससे श्रागे बढ़ना उसके श्राशय को हानि पहुंचाना है । सारी श्रायु तप के आडम्बर मे व्यतित हो जायगी और सार हाथ न आवेगा । तपके लक्षण सुनो:-- ( १ ) प्रायश्चित - दोष होने पर, शुद्धि करना (२) विनय - श्रतदेव और गुरु धर्म आदि का इर करना । ( ३ ) वैयावृत्य - साधु सेवा और सत्संग है । ( ४ ) स्वाध्याय - शास्त्र पाठ । (५) व्युत्सर्ग- शरीर आदि का ममत्व त्याग इत्यादि (६) ध्यान - एकाग्र चिन्ता । यह सब क्या है ? केवल विचार और चिन्तनमार्ग ! यह तप के अन्तरंग साधन है। इनमे कौनसी कठिनाई है ? बहिरंग साधन को भी सुनलो: ( १ ) अनशन - उपवाल करना । ( २ ) अनूदर - स्वास्थ्यरक्षा के लिए भूकसे कम खाना । ( ३ ) व्रतपरिसख्यान - भोजन करते समय उचित वासनाओं को चित्त में दिये रहना. जिसमे मन उसे स्वीकार करे और गुरु का ध्यान रहे । मन भोजन ही से बनता है ।

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