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'( ७४ ) मोच अहिंसा-धर्म फो, परमधर्म 'पाग योच । स्वार्थवश हिसा करे, वह नर सव में नीच ॥ १० ॥ अभयदान का दान दे, अभयभाव वित्त गक्ष ! यही जैन मत सार है, यह सैनी की साख ॥ ११॥ अभयदान से जीत ले, मन इन्द्रो और देह । कीव जो जीते धनीय को, उत्तम मत सो लेख ॥ १२ ॥ , देव देह कुछ देह त, जम लग तेरी देह । चित्तसे कर उपकार मित, जीयन का फल लेह ॥ १३ ॥
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