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( ७२ ) शान दान, औषधि दान, अभय पानइत्यादि लाखों ही दान हैं। अभयदान की मुख्यतो है। ज्ञानदान सर्वोपरि है, क्योंकि इसी से मुक्ति मिलती है । ऐसा दान हर एक नहीं कर सकता। इसके लिये बड़ी सामर्थ्य और बड़ी योग्यता चाहिए । अन्नदान से थोड़े समय के लिए वृप्ति होती है। औषधिदान से भी रोग 'कुछ दिनों के लिए हट जाता है। किन्तु शान दान से नित्य निवृत्ति हो जाती है। हां सम्यक् शान हो, जो समदर्शी बनाये। वाचकशान को शान नहीं कहते, वह शास्त्रों की युक्तियों की नोता रटंत रीति है, जो भ्रम से छुटकारा नहीं दिला सक्ता। ___इन सब में गुरु भक्ति, इष्ट वा श्रादर्श भक्ति के रूप मे जो दान दिया जाता है वह सबसे अत्यन्त महाकठिन व्रत है। और कोई ऐसा ही बहुत बड़ा दानशील सूरमा होगा जो इस में पूरा हो । यह संतों का मार्ग है संत ही ऐसा विचित्र वीर हैं जो अपने आप को दूसरों की भलाई के निमित् अर्पण कर देता है:
तरवर सरवर सतजन, चौधे बरसे मेह । परमारथ के कारण, चार्ग धारे देह ॥६॥ तरवर फलै न श्रापको, नदी न पीवे नीर । परमारथ के कारण मतन धश शरीर ॥२॥
दूसरों का उपकार करते हुए अपने जीवन का किश्चित बिचार न रखना, यह संसार में किसीर प्राणी के भाग में