Book Title: Jain Dharm Siddhant
Author(s): Shivvratlal Varmman
Publisher: Veer Karyalaya Bijnaur

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Page 81
________________ ( ७१ ) भोर- तोर निशि दिन करे, मोर तोर है धो ममता तन कर मुक्त हो क्यों है हिये का वध ॥ त्याग के विषय में एक कवि ने ऐसा कहा है : त्याग त्याग का रुप में सब कुछ डाला त्याग । लोक, पर ला और ऐस तज, पिया त्याग का त्याग यह त्याग की सीमा है। पर यह भी तो मानसिक भाव है। इसके सिवा और वह क्या है ? और यदि किसी का ऐसा त्याग हो, तो वह निस्सन्देह सराहनीय है और उसने त्याग की हद करदी । अब आगे त्याग की कोई मंजिल नहीं रही। किन्तु यू किसी से त्याग हाता नहीं । यह वही भारी बात है । तब त्याग का दूसरा यौगिक अर्थ सोचा गया और उसे दान दक्षिणा का वस्त्र पहनाया गया। यह भीत्याग ही है। दान ऐसा हो कि दायां हाथ दे और वाये हाथ कोलवर तक न होने पावे। इसे निष्काम दान कहते है। और इसमें करते रहने से सच्चा त्यागश्राप ही आप आजाता है। परतु इसमें भी ममत्व और अहंकार भाव आकर घुस गया और दान को लोगो ने सान वड़ाई और प्रतिष्ठा प्राप्त करने का साधन बनालिया। और जो त्याग का मन्तव्य था उसका लोप हो गया । फिर भी दान देना अच्छा ही है । क्योकि इससे अंतःकरण की शुद्धि हो जाती है। दान नाना प्रकार का है। अन्नदान, वस्त्रदान विधादान,

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