Book Title: Jain Dharm Siddhant
Author(s): Shivvratlal Varmman
Publisher: Veer Karyalaya Bijnaur

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Page 79
________________ ( ६ ) (४) रसपरित्याग-चिकना चुपड़ा खाना न खाना। (५) विविक्त शैय्यासन-एकान्त में पृथ्वी पर लेटना' जिसमें शरीर प्रारोग्य रहे और पृथ्वोकी श्राकर्षण शक्ति उसमें प्रवेश कर सके। व मन विकारी न बने। (६) कायक्लेश-शरीर को ऐसा बनाना कि उसमें सहनशक्ति श्राजाये । आरामतलब न होने पावे, इयादि इत्यादि। दाहेःतप कर जप कर भगन कर लोगजुगति पिस लाय। तरके प्रभाव से, जन्म सुफल हो जाय ॥१॥ अब लग ममता दे, संग, तब कग तप नहि होय माता त्यागे देह का, तपस्वी कहिये सोप २ तर की विता पर बढ़ चले, धार सत्यकी टेक । योग अगि घर प्रगट हो, महित विचार विवेक ३ तपपी के मन इध है, इष्ट से परम स्नेह । इट भाव जप चिन रमा, फिर महिं देह न गेह ॥ ४ साधु-ससी और सुरमा, तीनों तप के रूप तीनों में साहस रहे, पडे न श्रम के कूप ।। ।

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