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समभी दूर तो सक्ती है। यहां पर बात का बतंगडा बनाया गया और एक हाथ कफडी का नौ हाथ बीज दिखाया गया । हम खुली आंखों से देखते है कि लडका जय बाढ़ छोड़ता है, नो तप करता हुआ आता है, बीज जय अंकुरित होते हैं तो उन्हें भी तपना पड़ता है।' इन बातों में क्या कठिनाई है ? नीर्थकरों ने जो तप का उपदेश दिया होगा, वह भी ऐसा ही साधन है, जिसपर शब्दोंका श्राडम्बर खडा करके बहुत चड़ा स्थंभ बना दिया गया है। श्रोर जैनमत की इस तपकी कठिनाई को देखकर बुद्धदेव ने “मध्यमार्ग" के रूपमें उसका संशोधन करना चाहा और उसका नाम ' हीनयान' ही ( छोटा मार्ग ) रक्खा । वह वास्तव में कुछ न्यूनाधिक भेद रखते हुए जेन मार्ग की एक शाखा है। परंतु कालने उसपर मी आक्षेप किया । और समय पाकर वह भी कठिन मार्ग होगया और उसको 'महायान' ( बडेमार्ग ) का रूप धारण करना पडा । यह संसार की लीला है । जो बाता है वह कठिन को महाकठिन करने को प्रयत्न करता है । और एक बडी उसमें और जोड़ जाता है। तीर्थकरों की क्या शिक्षा थी, उसका पता पाना भी सरल नहीं है । केवल सुगमता की ओर दृष्टि करने की श्रावश्यक्ता है । सोच विचार करते रहने से श्रमली जीवन और करनी करने वाले श्राचार्य उसे श्रवभी समझ सक्ते है ।
तप का अभिप्राय केवल चिन्तन और विचारमात्र है ।