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जायेंगे, तवभी तपही से यह संभव होगा। हां, विछोह के लिये उल्टा तप करना पड़ेगा ।
श्रजीवरूपी परिमाणु पहले तप्तावस्था में रहते हैं । फिर दिन पाकर उनमें ठंडक आती है। और फिर गर्मी और सर्दीका मेल होता है, तब उस मेल से सृष्टि होने लगती है । और उसका प्रवाह चल निकलता है । और फिर अब उल्टा तप होता है तब लय, प्रलय और संहार की बारी आती है । यह नियम है ।
स्त्री पुरुष जब तपते हैं, तब वह मिलते हैं और मेल से संतति होती है । जीव जन्तु कीड़े-मकोड़े पशु-पक्षी वृक्ष इत्यादि सब इस नियम के श्राधीन हैं ।
जन्म तपसे होता है । पालन पोषण तपसे होता है और मृत्यु भी तपसे आती है। इसी तरह जब जीव को अजीव के साथ नाता तोड़ने की सुझती है तब उसे तप करना पड़ता है । विना तप के कुछ भी नही हैं । न होता है औौरन होसता है ।
तीर्थङ्कर तपके इस नियम को भलीभांति समझ गए और यही कारण है कि उसकी मुख्यता को प्रधानता दी है । श्रन्यथा कष्ट को सहना तप नहीं कहलाता । वह केवल एक प्राकृतिक नियम है, जिसका प्रवाह वरावर चला करता है और उस में सुगमता है। हां, उल्टी चाल चलने में कुछ संभावित कठिनाई होती है । यदि वह समझली जाय तो बहुत शतक -