Book Title: Jain Dharm Siddhant
Author(s): Shivvratlal Varmman
Publisher: Veer Karyalaya Bijnaur

View full book text
Previous | Next

Page 74
________________ ( ६४ ) नश्की सगत पाय कर, पशु करं नर-व्यवहार । साधुसगत जो नर करे, पावे उत्तम सार ॥ २ ॥ नौका सग लोहा तरे, देवो अपनी थाल काठ लोह में भेद है, भिन्न भिन्न निज साख ॥ ३ ॥ लोहा पडा जो अग्नि में, भया श्रमि का रंग । भस्म करे पल एक में, जो कोई करे प्रसग ॥ ४ ॥ सगत के गुणकी कथा, वर्णत वर्णन जाय । बाँस फॉस और मिश्री, एके भाव विकाय ॥ ५ ॥ संगत का प्रभाव महा प्रभावशाली होता है । यह बहुत सुगम है । यह मुख्य है और सब गौरा हैं इसे करलो और सब बातें तुममें आप श्राती जायंगी । सोच समझ मन आापने, धार सुसगत रग । त्याग कुसङ्गत सर्वदा, ज्यों कुचली भुग ॥ १ ॥ 1 त्याग कुसङ्गत शर्वदा कर सत्सङ्गत निल सत्सङ्गत सुख ऊपजे, निर्मल तन मन चित्त ॥ २ ॥ केला उगा जो बेर ढिग, निशदिन सहे क्लेरा । तज कुसङ्ग को जल्द तू, सुन गुरु का उपदेश ॥ ३ ॥ केला वेर के सङ्ग में, टर २ ठरकाथ ! व्यवहार प्रतिकूल जब, उरम २ दुख पाय ॥४॥ सङ्गत साधन सार है, नियम और यम की खान । जो कोई सङ्गत करे, लहे परम फल्याण ॥ ५ ॥ सत्संगत में वहिरंग और अंतरंग संयम दोनों का पालन सहज रीति में हो जायगा ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99