________________
[१४]
आकिन्चन्य श्रामञ्चिन शब्द संस्कृत धातु 'श्रा' (नहीं) और 'किञ्चन्' (कुछ) से बना है। कुछ न लेना ही प्राविञ्चन है। श्रथवा 'श्रा' (नही), किन्' (फ्ता), और 'चन्' (कुछ) अर्थात् क्या कुल नहीं, यह श्राक्थिन् है।
मन में कोई किसी बात की इच्छा न हो, किसी से कुछ न ले, किसी से किसी पदार्थ की आशा न रफ्खे, यह सच्चे जैनी (विजय करने वाले) का लक्षण है। परिग्रह के भाव का मनसे मेट देना उत्तम आकिचन है । कवीर सा० को कथनहै:
माह मिटो चिन्ता गई, ममुमा बेपरवाह ।
ताको कुछ नही चाहिए, वह शग शाहनगाह ।। निन्द, अपने प्रापे में रहना, आप अकेला रहना, सिली जन, पदार्थ, विषय, भोग, सामग्री, विचार, भाव इत्यादि से असंग होजाना, सच्चा अपरिग्रह है। यह जैनी यती के व्योहार का श्रादर्श है । सब से नगा होजाना, नंगा होकर रहना और नगे घरतना, इसी को सच्चा श्राकिञ्चन कहते है । जीव नझा हो जाय, असंग हो रहे, आप अपना सहारा, आसरा और कुटस्थवत आधार और विष्ठान होकर रहे, यही जैन मत का सिद्धान्त है। वेदान्त यदि कपोल कल्पित युक्तियों को