Book Title: Jain Dharm Siddhant
Author(s): Shivvratlal Varmman
Publisher: Veer Karyalaya Bijnaur

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Page 87
________________ (१) घेदान्त एक जीव मानता है। जैनी संसार दृष्टि से अनेक जीव मानते है । यह टोना में पहला मतभेट है। वेदान्त अपने सिमान्त के पक्षसी पुष्टि, लगकर युक्ति प्रतियुति से काम लेता है। जैनी इसे निरर्थक श्रम समझता है । फिन्तु उसका भी तो श्रादर्श दी। वही अपने एक जीवको एक नमझता एमा उसे अजीर में अलग करने के जनन में लगा रहता है। और जब यह पूर्ण रीति से भसग हो जाना है, नय उसीका लिड कहते हैं, जो सर्वशपर है। (२) येदान्त अगर को मिा कहता है । जैदी उस मिया चहान्त कीधि से नदी फहना यह फेवल जगत् ले श्रसंग होने या जनग करता है। जाजम अथवा मिथ्या को मिथ्या और मम मानता हुश्रा उसक लपंट में पड़ा रहता है, यह मूल याशर को न समझता उपा, भ्रम की उपासना में लगा रहता हैं। और जो चाना के लड्डू, पकाया करता है, वह उसके भावकी एट करता है। उसे उससे छुटकारा पा होगा? यहां प्राशिवन्य करने की श्रावश्यता है। नीव अकेला और असग और नगा हो आय, यह उसका परतब है। उसके अतिरिक्त सनी और चाहता क्या है ? यह वेदान्त और डैनधर्म में दूसरा मत भेद है। सोचने पाले सोचें तो उन्हें भी पता लग जाय कि पक्षपात के सिवा और क्या भेद है ? (३) चेदान्य काहता है, ईश्वर मिथ्या, जगत् मिथ्या,

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