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इन्द्रियां तो वस्तुतः इतनी दुखदाई नही भी होती है, किन्तु यह मन ऐसे नाच नचाता रहता है कि कभी चैन नहीं लेने देता।
'मनके मारे वर गये, नब तज वस्ती माहि ।
कह 'कबीर क्या कोजिये, यह मन वूझनाहि । इस मनके विषय काम, क्रोध, लोभ मोह और अहंकार है। वाहर और अन्तर इन्द्रियों का मेल है । और बह एक दूसरे के साथ गुथी हुई हैं । वाहरी इन्द्रियो की जड़ अन्तर में है । अन्तर की रोक थाम से यह भी वश में आ जाती है । पर यह काम बहुत कठिन है। इस लिए रोकथाम का साधन बाहर ही से प्रारंभ होता है। वाहर संयम और विरोध चाहे जितना करो, जहाँ तक अन्तर की जडबनी रहेगी. वह उत्पात मचाता ही रहेगा। इस लिये दोनों को रोकथाम एक साथ करनी चाहिये। तव लाभ होगा।
इन्द्रियों के संयम को 'दम' और मनके संयम को 'शम' कहते है। इस संयम की प्राचार्यों ने नाना विधियां बताई है। उन सबका यहां लिखना कठिन और समय का निरर्थक खोना है। मुख्य उपदेश यह है कि "प्राणी हिंसा न करे।" और बस हिंसा की हानि सोच समझ लेने से फिर आप इन्द्रियो का निरोध होने लगता है। मन, वचन, काय से अहिंसक होना ही तीनों का निरोध कर लेना है। पर यह संभव कैले है? इसका सरल साधन यह है कि व्यवहार और विचार को