Book Title: Jain Dharm Siddhant
Author(s): Shivvratlal Varmman
Publisher: Veer Karyalaya Bijnaur

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Page 71
________________ ( ६१ ) I करता है उतना ही यह बढती जाती है । और शान्त नही होतीं । और मनुष्य निर्वल होकर उनके काबू में रखने के असमर्थ हो जाता है। इसलिये महात्माओं ने इनके विरोध ही का उपदेश दिया है । ज्ञान इन्द्रियां पांच ह ओर पांचही कर्म इन्द्रियां हैं । इनके अपने २ विषय होते हैं और उनकी चाल उन्ही की ओर रहा करती है और वह रातदिन उन्ही के मांगों की इच्छुक वनकर उन्ही की चाह उठाती रहती है । श्रांख का विषय देखना कान का सुनना, नाक का सूंघना, और जिहा का स्वाद रस लेना और चर्मका छूना है । इन्द्रियां तो सबको होती है किन्तु जिसने जिस इन्द्री की विशेष कमाई करनी है उसने उसे उतना ही बलवान बना लिया है। श्रोर उतना ही उसका प्रभाव उसके जीवन पर पड़ता है और जिसने पांचो को बलवान कर लिया है उसका तो कहना ही क्या है । वह रात दिन उन्हीं के पीछे लम्पट रहता है । जो दशा बाहरी इन्द्रियो की है वहीं श्रान्तर इन्द्रियों की है । आन्तर इन्द्रियां अंतःकरण कहलाती है । और वह चार- चित्त, मन बुद्धि और शहकार कहलाती है । यह सब की सब सम्मिलित श्रवस्याये मन कहलाती है। और इस मनका भी विषय है । श्रीरजे से वाह्यइन्द्रियां विषय स्वादका भोग चाहनी रहतीं है, वैसे ही यह मन भी विषयों का संकल्प उठाता हुआ, उन्ही के ररसे से बंध जाता है। बाहरी ।

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