Book Title: Jain Dharm Siddhant
Author(s): Shivvratlal Varmman
Publisher: Veer Karyalaya Bijnaur

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Page 69
________________ ( 8 ) वनेगा । जैनी गुरु मते है । तीथदर गुस्थे । जो उनकी गह चलेगा उनके आशीर्वाद से अपना जन्म बना लेगाऔर अजीव के बन्धन से छूट कर जीव के सच्चे, शुद्ध और निर्मल स्वरूप को पा जायगा । यह जैनधर्म का सिद्धान्त है। मूल तत्व तो कंवल इतना ही है । भक्ति करने से श्रापही श्राप उसके सारे अंग आ जाते है। किन्तु शौच का होना आवश्यक है। जब तक शोच न होगा सच्ची भक्ति कदापि न हो सकेगी। 'नहाये धोये क्या भया, तनपा मैल न जाय । मीन सदा में रहे, धोये वाम न जाय ॥१॥ - (कोर) तनको शुद्धि कीजिये, काया रतन धोय । नहाये धोये मुग्य लीजिये, मैल देहमा स्त्रीय ॥२॥ मन की शहि फीजिये, काम क्रोध मद त्याग । श्ररकार और लोभ से, जान बूझकर भाग ॥३॥ जिह्वामी बुद्धि बने, मोठी वाणी बोल । मनसे प्रचन निकालिये, हिये तगज तोल ॥an धर्म गहिंमा पालिये, यह है सबका गुमा । तन मन की शुद्धि यमे हिंसा कोनै न भूत ।।५।। निन्दा कपा, न कीजिये, निन्दा श्रधसी सार। निंदा से उपजे मभी, पलह क्लेश महान 10 मन दर्पण के बीच में, परनिन्दा की छार निमलता पलमें गई, भग्गई धल विकार ॥७॥ निन्दक हो हिमक भया, हिंसा करे उपाय। जिका की तन्नपार से, करे कलेजे घाव । गुरु के रंग गायकर, रह सरगुर के सग। गाढा रग मजीठ पा, चढ़े न दूना ग

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