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त्याग
लंकृत ने न्याय तज (छोड़ने ) ले निकला है। इसना चोगिक अर्थ दान है । विरोयनर रूढ़ ही अर्थ लिया जाता है । __ननुष्य कमाछड़ेगा ? और क्या ग्रहण करेगा ? क्या पदार्थ प्रण योग्य हैं और कौनसी वस्तु न्याग योग्य है ? इस पर शास्त्रकारो ने बहुत विचार तडाया है। और पोथे के पोथे रंग जाते हैं । किन्तु वान थोड़ोसी है । उसे यूँ ही वतगड़ा बनाकर साधारण मनुष्यों को धोकेमे डाल दिया है। जो पदार्थ व्याग के योग्य है, वह केवल मन का ममत्व है और इसलिए त्याग कानात्पर्य मानसिक भाव से है। और प्रकार सनभाने से शब्दों का आडम्बर तो रचा जाता है। किन्तु यथार्थ की समझ नहीं पाती। जिसने ममत्वको सजा, उसने सवको नज दिया और उसका पूर्ण त्याग हो गया । और जिसने उसे नहीं छोड़ा, उसने कुछ भी नहीं छोड़ा। जिसने जीव को अजीक से वांध रक्खा है । वह सिर्फ मेरे तेरे पने की कल्पित रस्सी है। यह चूट जाय और बस, मनुष्य युक्त है। कीर साहब कहते हैं:
"मोर तोर की जेवरी, वट वाध नसार दामोरा क्यों बधे, जाके नाम अधार १