Book Title: Jain Dharm Siddhant
Author(s): Shivvratlal Varmman
Publisher: Veer Karyalaya Bijnaur

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Page 46
________________ धमएड का सर हमेशा नीचा ! जो इसके वश में आयेगा, वह अवश्य दुःख भोगेगा। खोद खाद धरती सहे, काट कुट बनगय । कुटिल वचन साधू सहे, और से महा न जाय ॥ दोहा.-मान हना हनुमान सोई, गम का साचा चीर । चजग्गी वनधान होय, दुख नुख सहे शरीर ॥१॥ धन त्यागो तो क्या भया, मान तजा नही जाय। मान ही यम का दूत है, मान ही सब को स्वाय ॥२॥ गुरुपद शीश झुकाय कर, त्याग दिया अभिमांग सहज ही रज गवन मरा, चिना धनुप बिष वान ॥३॥ नही मागू मैं मरनमद, नहीं माग सन्मान । सतगुरु पद कर दंडवत, मागू नाम का दान ॥४॥ भम को अपने मारले, ते सावा हनुमान । पायेंगा गुरु की दया, एक दिन पद नर्वाण ॥५॥

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