Book Title: Jain Dharm Siddhant
Author(s): Shivvratlal Varmman
Publisher: Veer Karyalaya Bijnaur

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Page 45
________________ ( ३५ ) वोले, "मुझ अकेले को लेकर तू क्या करेगा, मै तो लडूगा नहीं।" यहाँ पहले से ही इसका उत्तर मौजूद था । कहा, "आप मेरे रथवान बने रहें और हम को उचित सम्मति देते रहें । बस इतना ही चाहिर ।' कृष्ण ने स्वीकार किया "एवमऽस्तु ।" और लड़ाई हुई । पांडव जीते और कौरव मारे गए। “यत्र कृष्णम् तत्र जयम् ।' (३) रावण को युद्धमद था । वह सीता को हर लाया पनियों और उसकी रानी मन्दोदरी ने लाख समझाया कि घमण्ड को छोड़ कर सीता को लौटा दो । उसने उनकी नहीं सुनी। परिणाम यह हुत्रा. “एक लाख पूत सवा लाख नाती, तो रावण के दिया न वाती।" (४) में लाहोर में "मार्तण्ड" नामक मासिक पत्र का सम्पादक था। राधास्वामी मत में प्रवेश करने की वजह से आर्यसमाज का दल मेरे पीछे पड़ गया और मेरी लेखलो से एक अनुचित लेख निकल गया। लोग कितना ही मुझे समनाते रहे, “यह लेख न लिखो" । मैं मढ में चूर था। मित्रों की बात नहीं मानी । मुकदमा चलाया गया । जिस मे मुझे बहुत कष्ट भोगना पड़ा और अन्त में लज्जित हो कर क्षमापत्र देकर सुलह कर ली । यदि मुझमे मार्दव भाव का उत्ते जन होता तो मुझे यह कष्ट और यह लज्जा न उटानी पड़ती।

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