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( ३३ ) यह ऐसा हार्दिक रोग है जिसको असाध्य कहते हैं । इसकी
औषधि केवल मार्दव-नम्रभाव है और इस रोग का असा हुना मनुष्य परिणाम को न समझता हुआ इसके दूर करने का उपाय तक कम सोचता है। अथवा विल्कुल नहीं सोचना और सारी श्रायु रोगी रहकर विताता है । यह क्या है ? उदाहरणों से समझ में श्रावेगा:__ (१) कृष्ण जी धर्मराज युधिष्ठिर की ओरसे दूत बन कर दुर्योधन की सभा में पहुँचे।और उससे कहा:- भाई धर्मराज कहते हैं-तू रोज अपने पास रख,इम को केवल एक गॉवदेदे। हम उसी से अपना और अपने भाईयों का पालन पोषण करेंगे। दुर्योधन ने उत्तर दिया- 'एक गॉव बहुत होता है । मैं युधिघर को सुई के नोक के बराबर भी पृथ्वी नहीं दूंगा।" कृष्ण ने समझाया-"फिर युद्ध होगा और दोनों कुल नाश हो जायेंगे। इस घमण्ड और सब अकड़ से कोई भलाई न होगी और जब मरमरा गये तो फिर राज कौन करेगा?" दुर्योधन हट पर तुला हुआ था, बोला-"चाहे संसार इधर से उधर पलट जाये । मैं न युधिष्ठर की सुनूगा और न तुम्हारी यात मानगा।" कृष्ण ने कहा-"फिर तू लड़ाई मोल ले रहा हैइसका परिणाम नाश है । कौरव और पाण्डव दोनों ही इस लड़ाई से मिट्टी में मिल जायगे।" उसने कहा-चाहे कुछ भी हो। मैं अपनी हट न छोडूगा!"