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( 8 ) चाते भी कह देता है। जो सर्वाङ्ग से झठे नहीं होते, उन में सार रहता है। और यह सार सच होता है।
' सत्य ही सच्चा तप है। मनुष्य कुछ न करे। सच बोलने का अभ्यास करले । फिर वह तपस्वी बन जायगा और जो उसकी कामना है, सब पूर्ण होकर रहेगी । कबीर जी का कथन है:
साँच वगेवर तप नहीं, मठ वशेबर पाप लाके हृदय साच है ताके हृदय श्राप ।। सत्यभाव काचौगना पहर 'कवीरा' नाच ।
तन मन तापर वारियों को कोई बोलेसाच ।। उदाहरणों पर नज़र डालिए। (१) झूठ में 'दुःख और सच में सुख है। दो स्त्री पुरुष किसी घर में रहते थे। दोनों सच्चे थे और परस्पर प्रेम पालते हुए खुशी थे। सरल स्वभाव वाले । एक दूसरे से कोई बात छुपाता नहीं था। पडोसियों ने चाहा कि उनमें अनवन करदें । वह परिश्रम करके भी ऐसा नहीं कर सके। और न उनके सुखमें कोई बाधा डाल सके। अन्त में लजित होकर उन्होंने एक टगनी स्त्री से कहा कि यदि तू इनमें अनवन करादे तो हम तुझे पचास रुपये देगे। उसने स्वीकार किया श्राप तो स्त्री के पीछे पडी और एक पुरुष को उसके पति के पीछे लगाया । और यह दोनों के बनावटी मित्र बने।
एक दिन कुटनी ने स्त्री से कहा-तेरे पुरुष का शरीर लून