Book Title: Jain Dharm Siddhant
Author(s): Shivvratlal Varmman
Publisher: Veer Karyalaya Bijnaur

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Page 62
________________ ( ५२ ) श्राप शिक्षा दीजिए कि यह गुड़न खाये।"स्वामी जी ने कहा "भाजले दस दिन बाद इस लड़के को लाना । मैं समझा दूंगा फिर यह गुड़ न खायगा।" वह दसवें दिन उसे लाई। स्वामी जी ने बालक से इतना ही कहा कि "बेटे, अवगुड़न खाना।' उसने उत्तर दिवा -"आप कहते हैं तो मैं श्राजले गुड़ को हाथ तक न लगाऊँगा" स्त्री चकित होकर पूछने लगी कि "यही टार पहले दिन क्यों न कहदी । दस दिन योही अक्षारथ गर स्थामीजी ने हंसकर कहा-माई सुन, पहले मैं आप गुड़ खाया ता था। उस दिन मेरे पास गुड भी रक्ता हना था । द मैं इसे कहता तो यह न मानता । मैंने दश दिन तक गुड़ रहीं खाया। इस लिए यह मेरे वचन को सान गया। दाहे-"कातिक मास करेल ला, चहानम की हार। पच्चाई थी चीन में, अति वडा व्यौहार ॥१॥ कथा पथन को चान है मुनामुनी की बात । गुनबन्ना वाई क्यो बने, बिना गुनी वी गन ॥ २ ॥ क्यस्य र स्व मर गये, क्यनी के व्यौहार । बित करो वह दह गये, उड़े कानी धार ॥६॥ साँचा है तो मात्र इन, साया हो दिवाय । जब तक सादा ना कने, साच काहुर जाय ॥ माचा हृदय विमज तन मुत्त से साची बान। ऐसे को साग क्हो साच गहे तव हाथ ॥शा करनी करे सो निक्ट है, क्यनी क्ये तो दुरा - रहनी रहे तो रूप है, रहने में भरपूर ॥६॥

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