Book Title: Jain Dharm Siddhant
Author(s): Shivvratlal Varmman
Publisher: Veer Karyalaya Bijnaur

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Page 51
________________ ( ४१ ) बात की आवश्यकता है कि मनुष्य का जीवन सादा और उस के भाव ऊँचे हो । ( Simple living and high thinking) यह कहने का अभिप्राय है । संसार दिन प्रति दिन बनावटी होता जा रहा है और दुः की वृद्धि हो रही है । ऐसा तो होना ही चाहिए। श्राश्चर्य तो उस समय होता, जब ऐसा न होता । नीच से नीच कुल के मनुष्य को देखो, सव मान थपमान के बन्धन में फँस रहे है । सब 'इज्जत' चाहते हे - दिखावट और बनावट पर मरते है । और उन के बन्धन बढ़ते हो जाते हैं, और घटने पर नहीं आते। श्रावश्यकतायें बढ रही हैं, जो आवश्यक नहीं है श्रार जीव कठपुतली जैसा श्रजीव वना हुआ घूम फिर रहा है । धर्म के पालन के लिए श्रार्जवपना मुख्य है। जैनधर्म का तत्व केवल इतना ही है । श्रार्जवभाव के उदाहरण देखिए: hunghting + ( १ ) एक राजा महल के कोटे पर मखुमल के तोशक पर लेटा हुआ करवटें बदल रहा है । उसे नींद नही आती है । महल के सामने राख का ढेर पड़ा हुआ है । उस पर एक नग्न साधु पड़ा हुआ गहरी नींद में खुर्राटे ले रहा है । राजा की श्राचर्य हुआ । प्रातःकाल उसे बुला भेजा - पूछा “क्या कारण है कि मुझे तो नींद नहीं आती और तू सुख चैन से साता है ।" साधु ने उत्तर दिया- "तू बन्धन में है और मैं बन्धन मुक्त /

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