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( ४३ ) किसी दिन साधु वृक्ष के नीचे बैठा हुआ था। राजा की सवारी निकली। यह सैर को जा रहा था। इस पर दृष्टि गई। राजा ने कहा "चलो तुम को सैर करा लायें। साधु ने उत्तर दिया-"मैं नहीं चल सकता । इस वृक्ष का बन्धन भारी है। इसने मुझे बांध रक्खा है।"
राजा-"क्या तुम मूर्ख हो गए हो, जो वृक्ष को बन्धन का कारण समझते हो । वृक्ष तो स्थावर पदार्थ है । यह कैसे बाँध सकता है?
साधु-"तू मुझ से महामूर्ख है, जो राज काज धन दौलत को बन्धन का कारण मान रहा है। यह भी तो जड़ स्थावर हैं। तुझे इन्हो ने कैसे बॉध रक्खा है ?"
राजा की समझ में बात श्रागई। हाथी से उतरा, पॉवपर गिरा, क्षमा माँगी और उसका शिष्य होगया। साधु ने जीय अजीव का सम्बन्ध समझा दिया । इसने अपनी ज़रूरतें कम करदी। बार्जदभाव को ग्रहण किया और राजा होते हुए भी फिर उसे नांद का आनन्द मिलने लगा।
(२) विक्रमादित्य उज्जैन का महाराजा वडा प्रतापी हुमा है। यहाँ तक कि हिन्दुस्तान के बाहर दृसरे देशों रोम इत्यादि में उसके दूत रहते थे। यह बड़ा सरल स्वभाव कामनुष्यथा। यहाँ तक कि पृथ्वी पर चटाई बिछाकर सोता था और अपने हाथ से विपरा नदी से पानी भर ताया करता था अपने निज काम के लिये सेवन नहीं रख छोडे थे।