Book Title: Jain Dharm Siddhant
Author(s): Shivvratlal Varmman
Publisher: Veer Karyalaya Bijnaur

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Page 14
________________ जो बढ़ता हो-जिसे यह कारता प्राप्त हुई हो-जो जीवन के तमाम तीर्थों अथवा मन्ज़िलों को लांघ कर तीर्थकर बनो हो, वह वर्द्धमान है । 'मान' शब्द संस्कृत धातु'मा' (मापने ) से निकलता है अर्थात् जिलने वृद्धि की माप तोल करली है और माप तोल करते हुए जिसने उसे अपने श्राधीन कर लिया है । मेरी समझ में केवल वही पुरुष वर्द्धमान कहा जा सकता है। जैन धर्म का चौबीसवां तीर्थङ्कर इस मतके अनुसार मुख्य और अमुपम श्राचार्य है। इससे पहले तेईस तीर्थकर हुये हैं-मुझे उनले कोई प्रयोजन नहीं है । प्रयोजन केवल वर्द्धमान महावीर से है। यह महापुरुप निम्रन्थी अथवा निम्रन्थ था। इसकी शिक्षा किसी ग्रन्थ में नहीं लिखी गई थी। किन्तु इसने जन्मजन्मान्तर की सिद्धियों से जो अवस्था अपने अनुभवसे प्राप्त की, केवल उसी की शिक्षा दी है । एक अर्थ निर्जन्थ होने का यह है। दूसरा अर्थ यह है कि वह अन्थिबद्ध नहीं था । उसने तमाम बन्धनों को तोड़ दिया था । शुद्ध था, मुक्त था और जीते जी उसने निर्वाण (कैवल्य ) पद की प्राप्ति करती थी ! इसलिये उसकी शिक्षा प्राप्त ऋषि के शब्द के रूपमें स्वीकृत और प्रमाणिक है । जो मुक्त है, वही मुक्ति दे सक्ता है। जो बद्ध है उससे मुक्ति की आशा रखना भूल और चूक है। पुस्तकों को पढ़कर शिक्षा देना साधारण मनुष्यों का करतब तो हो सक्ता है, परन्तु वह उतनी प्रभावशाली नही हो सक्ती !प्रभावशाली विशेषकर अनुभवी पुरुषों ही की शिक्षा

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