Book Title: Jain Dharm Siddhant
Author(s): Shivvratlal Varmman
Publisher: Veer Karyalaya Bijnaur

View full book text
Previous | Next

Page 40
________________ ( ३० ) 'जो तो काटा बोये, ताहि वोय तू फूल । सोक फूल के फूल हैं, बाको है निशूल । वनमें सागे भाग जप, भागे पशु ले पाए। तैसे मोष से तन तने , बुद्धि विवेक सत्र ज्ञान ॥१॥ तनका नगर सुहावना, दया धर्म का देशा। आग लगी जर मर गया, शीतलता नही लेश ॥२॥ कोष अग्नि हदय परी, भस्म भई सप देह । क्या सोने तू धर्म वहा, वह तो होगया सेह ॥३॥ क्रोष पाप को मत है, और पाप सब तुच्छ । बिना द्वेष और ईर्पा , इसके अङ्ग लव कुच्छ । बैरी औरन के तई , क्षेय जान और प्राण । । निनघातक क्रोधी वना,सो मूरख श्रमजान ॥५॥ भूगल से नहीं उरमिये, ज्ञानी से नही बैर। शतभाव नित कीनिये, इस दुनिया की सैर ६॥

Loading...

Page Navigation
1 ... 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99