Book Title: Jain Dharm Siddhant
Author(s): Shivvratlal Varmman
Publisher: Veer Karyalaya Bijnaur

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Page 38
________________ ( २८ ) हानि पहुँचाना चाहता है और उस मनुष्य में हानि पहुँचाने का संस्कार नहीं है, तो उसका भाव उलटकर उसी की ओर जायगा । और उसके अन्त करने में समायेगा, क्योंकि उसके रहने के लिए और कही ठौर ठिकाना नहीं है।" " ___यह कहकर बुद्धदेव चुप होगये। ब्राह्मण पुत्र की अवस्था बदल गई। वह धाड़ें मारकर रोता हुआ "त्राहिमाम् ! त्राहिमाम् !" कहता हुआ उनके चरणो पर गिर गया। उन्होंने उसे दयापूर्वक अंग से लगा लिया। और दूसरे दिन इसने प्रार्थना करके बुद्ध धर्म और संघ की शरण ली। (५) जब वर्द्धमान भगवान घरसे निकल कर बारह मास के तप में मग्न थे, दो चार जैनमत के विरोधी आये और उन्हें पाखंडी समझकर उनके दोनों कानों में लोहेकी कीलें ठोक दी, भगवान चुपचाप समाधिस्थ होकर बैठ रहे। विरोधी तो यह अनर्थ करके चले गये । दो चार श्रावक आये। उनकी दशा देखकर इन्हें दुःख के साथ क्रोध हुआ.। धीरे २ कीलोंको कान से निकाला । कानों से इतना रक्त वहा कि लश लुहान होगये और पृथिवी पर रक्त पुत गया । इन श्रावकोंने भगवानसे आज्ञा मांगी कि, "हम ऐसे अपराधी पुरुषों की ताड़ना किये बिना न रहेंगे। जिन्होंने आपको ऐसा कष्ट पहुंचाया है हम उनको कदापि जीवित न छोड़ेंगे ।" भगवान् ने नमुता पूर्वक उन्हें उत्तर दिया कि “हे श्रावको ! मैं किसी प्राणीको दुःख देने नह!

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