Book Title: Jain Dharm Siddhant
Author(s): Shivvratlal Varmman
Publisher: Veer Karyalaya Bijnaur

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Page 29
________________ ( १६ ) [६] धर्म के दश लक्षण ! धर्म की जड वतादी गई । जैनियों ने अहिंसाको परम धर्म माना है । यह धर्म बीज है । और जब धीज में अर आता हैपत्ते निकलते हैं-टहनियाँ थोर शाखाये उत्पन्न होती हैं, फूल जाते हैं. फूल से फल प्रकट होते हैं, तव उनको देखकर मनुप्य समझने लगता है कि यह अमुक प्रकार का वृक्ष है। पर फल फूल के देखने से उसके नामरूप की परख होती है। यह संसार नाम और रूप का विस्तार है। नाम और रूप के विना कुछ नहीं होता। अहिंसा परम धर्म है। जैनाचार्यों ने उसके दश लक्षण ठहराये हैं। जिनके नाम हम तुमको यहां सुनाते हैं:-(१) क्षमा (२) मार्दव, (३) आर्जव, (४) सत्य, (५) शौच, (६) संयम, (७) तप, (८) त्याग, (६) प्राकिञ्चिन्य (१०) आर ब्रह्मचर्य । यह दशलक्षण धर्म है । जो धर्म के स्वभाव कहे जाते है । इनकी सम्मिलित अवस्था व्यौहार प्रतिभास और परमार्थ की रोशनी से मिली जुली पद्धति में रत्नत्रय कहलाती है, जिनके नाम सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र हैं । तीर्थङ्करों ने इन्हीं के ग्रहण करने को शिक्षा दी है। (१) समा सहनशीलता है। दूसरे के अपराध को दृष्टि

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