Book Title: Jain Dharm Siddhant
Author(s): Shivvratlal Varmman
Publisher: Veer Karyalaya Bijnaur

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Page 28
________________ ( ८ ) - भाव मन में नहीं कथे कथन दिन रात । वह नर इस संसार में, भवसागर वह जात ॥ २ ॥ दया भाव हृदय वते, दयावन्त हो जो । सच्चा ज्ञानो जगत् में, निश्चय समभो सो ॥ ३ ॥ देना हो तो प्रेम दे, लेना हो तो गुरु नाम ! फिर जग में व्यापे नहीं, क्रोध लोभ और काम ॥ ४ दया धर्म का मूल है, पाप मूल अभिमान । दया दिन नर जगत् में, भोगे नरक निदान ॥ ५ ॥ सतसमागम मुक्ति गति, मिले दया का दान । दया चमा से पाईए, भुव पद पद निर्वान ॥ ६ ॥ 'राधास्वामी' की दया. सूझा अगम अलेख | दया धर्म का मूल है, जाना भाँखों देख ॥ ७ ð

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