Book Title: Jain Dharm Siddhant
Author(s): Shivvratlal Varmman
Publisher: Veer Karyalaya Bijnaur

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Page 27
________________ ( १७ ) मुझे स्मरण है कि जब मैं 'आयंगजट' लाहौर का सम्पादक था। उस समय फुरकियाँ ( चिड़ियाँ) जो घरों में रहने वाली छोटी पक्षियों हैं, खाने की थाली के सामने आते ही, शोर मचाती हुई मेरे इधर उधर फड़फड़ाती और मंडलाती थी। कोई मेरे सिर पर बैठ जाती थीं कोई कंधे पर और मेरी थाली से चावल के दाने चुन चुन कर खाती रहती थीं। में प्रसन्न रहता था । यह अवस्था वर्षों तक थी, परन्तु जब कोई दूसरा मनुष्य आगया तो वह परों को फड़फड़ाती हुई फुदक कर उड़ जाती थी, इसका कारण अहिसा ही था। क्योंकि आर्यसमान से सम्बन्ध रखता हुआ भी न मैं किसी मतमतान्तरका खण्डन करता था, न मेरी लेखनी से कभी हृदय दुखाने वाले लेख निकलते थे। मैं जव तैला था अब भी वैसा ही हूँ । निर्पक्ष हैं। पक्षपात रहित हूँ। मनुष्य कुछ न करे-मनवचन और काया से अहिंसक होने के प्रत्यन में लगा रहे । उसके हृदय में प्रेम भरा हो। और यह सारा जगत् उसका कुटुम्ब प्रतीत होगा-चित्त का विशाल और मन का उदार होता जायगा। उससे किसी की हानि नहीं पहुंचेगी। और सब आप ही आप उसे प्यार करने लगेगे। यह मेरा निजका अनुभव है और यह अनुभव सिद्ध है । अहिंसा दया का मार्ग है: "दयाधर्म का मूल है, धर्म दया का मूल । दयावन्त नर को कमी, महीं व्यापै मग सून ॥ १॥

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