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होती है । ग्रन्थिबद्ध पुरुष ग्रन्थो के बन्धन में फॅसे हुए उन्हो के प्रमाणों के ग्लूटे से बंधे रहते हैं । जब तक वह निर्ग्रन्थ और अनुभवी न हो तब तक लसार उनको जैला चाहे वैसा माने उसे अस्तयार है । मै तो देवत ऐसे गुरु का सेवक हूँ. जो अनुभवी और सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र की झलकती हुई मूर्ति हो !
उस चूश्यानिशी का दिला नै मुरीद ह जिसके श्याम जुहद में ये क्या न हो ।
जैनमत को मै वीर मार्ग इसलिये कहता है कि उसके सारे के सारे श्राचार्य ( तीर्थंकर) क्षत्री रहे है | क्षत्री-संस्कृ धातु 'दाद' (जड़) से निकला है । जो सबकी जड़ हो वह क्षत्री है | यह ससार में श्रादि वर्ण है । और इसका मन्तव्य केवल जीतना और विजय पाना है । ब्राह्मण वर्ण क्षत्रियों के पोछे आया है और इसकी पद्धति की नीव भरत जी ने रक्खी थी । इसलिए यह संसार में दूसरा वर्ण है । मनु पहिला क्षत्री था और मनुष्य मात्र प्राणियों का मूल पुरुष उसोको समझना चाहिये । इस दृष्टि से जैनधर्म श्रादि धर्म -राजधर्मक्षत्री धर्म और वीर धर्म है। और इसलिए वह सबमें श्रेष्ठ है । मनु जी ने श्राप अपनी स्मृति में कहा है, "क्षात्र धर्म परो धर्म." अर्थात् क्षत्रियों का धर्म ही तमाम धर्मो से ऊँचा है । श्रौर यह सबमें उत्तम है ।