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धर्म
धर्म क्या है ? यह दो शब्द 'धृ' ( धारणं करना ) और 'म' ( मन ) से निकला है । मनसे जो पकड़ा जाय, सोचा जाय, विचारा जाय और जिसपर मनुष्य आरूढ़ हो, वह धर्म है ।
इस धर्मका श्राशय क्या है ? इसका आशय यह है कि अन्तर और बाह्य जगत् के पदार्थों पर इस धर्म के सहारे विजय प्राप्त की जाय । इन्द्रियां वशमें आवें । मन पर सवारी की जाय । तब जाकर कहीं सच्ची विजय प्राप्त होगी। कंवीर सा० फरमाते हैं:
मन के मते न घालिये, मन के मते अनेक ; जो मन पर सवार हैं, सो साधू कवि एक । जब लम झटपट में रहे तब लग खटपट होय ॥ जब मनको खटपट मिटे झटपट दर्शन होंय, aisa दौडत दौडिया जहा लग मन को टोड । दौड थके मन धिर भया; वस्तु ठौर को ठौर
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यह मन काग या करता जीवन घात ; अव यह मन हंसा भया, मोती चुन चुन खात
इन दोहों के अन्दर जैनमत का सार भरा पड़ा है, यद्यपि कवीर सा० जैनी नहीं थे और न उल के सिद्धान्त से परिचित