Book Title: Jain Dharm Siddhant
Author(s): Shivvratlal Varmman
Publisher: Veer Karyalaya Bijnaur

View full book text
Previous | Next

Page 21
________________ ( ११ ) [ % ] धर्म धर्म क्या है ? यह दो शब्द 'धृ' ( धारणं करना ) और 'म' ( मन ) से निकला है । मनसे जो पकड़ा जाय, सोचा जाय, विचारा जाय और जिसपर मनुष्य आरूढ़ हो, वह धर्म है । इस धर्मका श्राशय क्या है ? इसका आशय यह है कि अन्तर और बाह्य जगत् के पदार्थों पर इस धर्म के सहारे विजय प्राप्त की जाय । इन्द्रियां वशमें आवें । मन पर सवारी की जाय । तब जाकर कहीं सच्ची विजय प्राप्त होगी। कंवीर सा० फरमाते हैं: मन के मते न घालिये, मन के मते अनेक ; जो मन पर सवार हैं, सो साधू कवि एक । जब लम झटपट में रहे तब लग खटपट होय ॥ जब मनको खटपट मिटे झटपट दर्शन होंय, aisa दौडत दौडिया जहा लग मन को टोड । दौड थके मन धिर भया; वस्तु ठौर को ठौर 2 + यह मन काग या करता जीवन घात ; अव यह मन हंसा भया, मोती चुन चुन खात इन दोहों के अन्दर जैनमत का सार भरा पड़ा है, यद्यपि कवीर सा० जैनी नहीं थे और न उल के सिद्धान्त से परिचित

Loading...

Page Navigation
1 ... 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99