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है, जिसकी सचाई में सन्देह करना केवल मूखों का काम होगा ।
सांख्यमत का प्रवत्त के कपिल श्राचार्य क्या कहता है ? "प्रकृति चाहती है कि पुरुष उस पर विजय पावे ।" घर रहने वालों के लिये है, मेज़ व कुर्सी बरतने वालों के लिये ह । इस लिये पुरुष का धर्म है कि वह इनको अपने वशमें लाये । जब तक यह प्रकृति वशमै नहीं आती तब तक सौ २ नाच नचाया करती है और जहां पुरुष ने साहस करके इसको दबोच लिया; फिर वह लज्जित हो जाती है और पुरुष को प्रसंग छोड़ देती ह | विना विजय किये हुये सत्ज्ञान की प्राप्ति दुर्लभ है । यह प्राकृतिक स्वभाव है । और इस लिये हम जैनमत को प्राकृतिक धर्म ( Natural Religion ) कहते हैं । पुरुष और प्रकृति और कोई पदार्थ नहीं हैं, वह जीव और अजीव हैं ।
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सब कुछ कर लिया- पढ़ा लिखा, सोचाविचारा, गौरव, वित्त, प्रतिष्ठा, सम्मान, यश, कीर्ति इत्यादि प्राप्त कर लिये, परंतु
प्रकृति वश में नहीं आई ! इस लिये श्री महावीर स्वामी ने
त्रिरत्न अर्थात् सम्यक् दर्शन, सम्यकज्ञान और सम्यक् चारित्र
की शिक्षा देते हुए इन्द्रियोंके जीतने और मनको वशीभूत करने
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की युक्ति सुभाई । कबीर जी की वाणी है:
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'गगन दमामा बाजिया पडी निशाने चोट कायर भागे कुछ नही सूरा भागे खोट