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यह छोटा बच्चा होता हुआ भी इसकी वाक शक्ति कैसी है और कैसे सुन्दर शब्दों का प्रयोग कर रहा है ? कहा है कि "शिष्य रत्नस्य प्राप्ताहि हर्ष उत्कर्ष भाग भवेत्” शिष्य रत्न की प्राप्ति में महान् पुरुषों को भी प्रमोद हो जाता है। हीरजी की आकृति से स्पष्ट मालूम होता था कि भावि गच्छनायक पट्टालंकार यही होगा। ऐसा गुरुदेव ने अंतःकरण में तर्कवितर्कपूर्वक श्रीसंघ को सूचना की कि यह भाई संसार से विरक्त होकर साधु पद की याचना करने के लिये मेरे पास आया है। श्रीसंघ ने विनयपूर्वक उत्तर दिया कि गुरुदेव ! अवश्य दीक्षा के योग्य लड़का है आप दीक्षा दीजिये। आचार्यदेव के उपदेश से श्रीसंघ ने अठाई महोत्सव एवं जुलूस की तैयारी धूम धामपूर्वक प्रारम्भ की, हीरजी के हृदय में संसार सम्बन्धी किसी भी पदार्थ की तरफ लक्ष्य बिलकुल नहीं है। आप दिनानुदिन अधिक वैराग्य में मस्त बनते जा रहे थे जो कि आपका दीदार बताता जा रहा था। सं. १५६६ मार्गशीर्ष (गु. का.) कृष्णा तीज के दिन सारे शहर में घूमता हुआ हीरजी का शानदार जुलूस नियत स्थान पर जा रहा था
और शहर के हजारों नर नारी अपने घरेलू कार्य को छोड़ कर जुलूस में शामिल होने के लिये आगे पीछे दौड़ते जा रहे थे। वरघोड़ा नियत स्थान पर पहुंचने के बाद हीरजी रथ से नीचे उतर कर अपने ही हाथ से सांसारिक वेष को उतार कर विनीत होकर एकाग्रचित से गुरु चरणों के सामने खड़े हो गये । गुरुजी ने उत्तम पुरुष समझ कर शुभ मुहुर्त में श्री भागवती दीक्षा देदी, गुरुदेव श्री मद्विजयदान सुरीश्वरजी महाराज के कर कमलों द्वारा दी हुई दीक्षा को सहर्ष स्वीकार करके विनीत हीरजी कृतार्थ होकर दीक्षा की महत्ता बताते हुए जनता को भी दीक्षा स्वीकार करने के लिए कहने लगे। काव्यं
दीक्षा मोह विनाशिका च सततं भव्योदय प्रापिका । दीक्षा पूज्यतमा समस्त भुवने जीवात्मनां पाविका ॥
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