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करना परमावश्यक है । इसलिये कि हमें भी ईश्वर बनना है । हमको भी संसार से मुक्त होना है । उपासना उसकी करनी चाहिये जो कि संसार से मुक्त हो गया हो । फल प्राप्ति का आधार देना लेना नहीं है । दान देने वाला जिसको दान करता है, उससे फल नहीं पाता है | परन्तु दान देने के समय उसकी सद्भावना ही फल देती है । अर्थात् वही पुण्य होता है । इसी प्रकार ईश्वर की उपासना करने के समय जो हमारा अंतःकरण शुद्ध होता है । वही उत्तम फल है । संतों के पास जाते हैं तो क्या कुछ देते हैं ? लेकिन संत पुरुषों के निकट जाने से हृदय शुद्ध होना ही फल है । वेश्या के पास जाने से क्या वेश्या नरक में डाल देती है ? नहीं ! किन्तु वेश्या के पास बुरे विचार पैदा होना ही नरक का कारण है । इसी प्रकार ईश्वर का ध्यान भक्ति उपासना एवं प्रार्थना करने से हमारा हृदय पवित्र बनता है और हृदय का शुद्ध होना ही धर्म है ।
इस बात को सुनकर अकबर ने कहा कि धर्म की उत्पत्ति कैसे होती है ? और धर्म का क्या लक्षण है ? गुरुजी ने कहा कि धर्म की उत्पत्ति कभी नहीं होती । यह जैन धर्म का सिद्धान्त कहता है । धर्म अनादि काल से चला आया है जैसे गुण गुणी में रहता है, उसी प्रकार धर्म धर्मी में रहता है । धर्म ऐसी चीज नहीं है जो अपने आप रह सके, धर्म का लक्षण सिद्धान्तों में बतलाया है कि "वत्थु सहावो धम्मो " वस्तु का जो स्वभाव है, उसी का नाम धर्म है । पानी का स्वभाव है शीतलता, यही पानी का धर्म है । इसी प्रकार आत्मा का धर्म है सच्चिदानन्दमयता अथवा ज्ञान दर्शन चारित्र ।
इस धर्म की रक्षा करने के साधन अनेक हैं । जैसे दान, शील, तप, भाव, परोपकार, सेवा, संध्या, ईश्वर भक्ति प्रार्थना इत्यादि धर्म के साधन माने हैं । इससे उत्पन्न होने वाली चीज, वह है धर्म अथवा क्रोध मान, माया, लोभ, राग, द्वेष इत्यादि जो अभ्यन्तर शत्रु
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